उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। जहां एक तरफ वह स्वयं, उनकी बहन और उनके बच्चे कांग्रेस के लिए वोट मांग रहे हैं वहीं कांग्रेस के अन्य नेता गांधी परिवार के प्रति अपनी स्वामिभक्ति व्यक्त करने के लिए एक-दूसरे से होड़ लेने में लगे हैं। प्रतिस्पद्र्धा में लगे इन नेताओं के ऐसे बयान सामने आ रहे हैं जो न केवल संवैधानिक मर्यादाओं को तोड़ते हैं, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी खतरे की घंटी हैं। विधि एवं अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद द्वारा पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में से मुसलमानों के लिए 9 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा को चुनाव आयोग ने गंभीरता से लिया। आयोग ने खुर्शीद को आचार संहिता का पालन करने का निर्देश देते हुए सावधानी बरतने के लिए चेताया था, किंतु पिछले दिनों उन्होंने एक और चुनाव रैली को संबोधित करते हुए कहा, चुनाव आयोग भले ही मुझे फांसी पर चढ़ा दे, मैं मुसलमानों के अधिकारों के लिए लड़ता रहूंगा। खुर्शीद केंद्रीय विधि मंत्री हैं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर उनसे संवैधानिक निकायों के प्रति सम्मान प्रकट करने की अपेक्षा की जाती है। उन्हें चुनाव आयोग की मर्यादा और प्रतिष्ठा की रक्षा करनी चाहिए। इससे पूर्व जब आयोग ने भारतीय जनता पार्टी की शिकायत पर आचार संहिता उल्लंघन करने का संज्ञान लिया था तब भी उन्होंने अमर्यादित टिप्पणी करते हुए कहा था कि आयोग को चुनाव के बेसिक फंडे की जानकारी ही नहीं है। चुनाव आयोग का बार-बार इस तरह उपहास उड़ाए जाने पर भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का मौन रहना यह दर्शाता है कि खुर्शीद को उनका समर्थन प्राप्त है। कांग्रेस में चाटुकारिता का बहुत महत्व है। केंद्रीय कोयला एवं खान मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का हालिया बयान इसे रेखांकित करता है। पिछले दिनों पत्रकारों से बात करते हुए जायसवाल ने कहा, राहुल जब चाहें, देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सवाल कहां खड़ा होता है। वह इस राज्य में जो भी शासन देंगे उसके रिमोट कंट्रोल का सेंसर बहुत मजबूत होगा। केंद्र में स्थापित रिमोट कंट्रोल वाली व्यवस्था के कारण देश जिस बदहाली के दौर से गुजर रहा है उसको देखते हुए उत्तर प्रदेश का भविष्य सहज ही समझा जा सकता है। संविधान में रिमोट की कोई व्यवस्था नहीं है। 2004 के जनादेश के बाद संवैधानिक अड़चनों के कारण जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा टूटी तो पिछवाड़े से सत्ता की कमान थामे रखने के लिए इस तरह की अलोकतांत्रिक बुनियाद डाली गई। सोनिया के विदेशी मूल के कारण 2004 में कांग्रेस को समझौता करना पड़ा और एक नौकरशाह प्रधानमंत्री बने। लोकतंत्र के साथ किए गए इस नए प्रयोग का दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास पद तो है, पर शक्तियां नहीं। सोनिया गांधी संप्रग समन्वय समिति का अध्यक्ष बन सत्ता का रिमोट अपने पास रखे हुए हैं। इस विरोधाभास के कारण ही आज हमारे चारो ओर अव्यवस्था-कुशासन फैला है। सरकार में कायम नेतृत्वहीनता के कारण अर्थव्यवस्था दिशाहीन हो गई है। महंगाई बेलगाम है। नामचीन उद्योगपति सरकारी स्तर पर व्याप्त नेतृत्वहीनता को दूरकर अर्थव्यवस्था को संभालने की अपील कर रहे हैं। सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है। यदि न्यायपालिका ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो न तो 2जी घोटाले के आरोपी तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा और न ही राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में लूट के कसूरवार कलमाड़ी सलाखों के पीछे पहंुचते। सीएजी की रिपोर्ट में दिल्ली की मुख्यमंत्री पर भी अनियमितता बरतने के आरोप हैं, किंतु सरकार ने उन्हें संरक्षण प्रदान कर रखा है। नेता प्रतिपक्ष के विरोध के बावजूद सरकार ने एक दागदार व्यक्ति को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त बनाया था, जिसे अदालत के आदेश के बाद हटाना पड़ा। कैसी सरकार है यह और इसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? आर्थिक, औद्योगिक और कृषि, तीनों क्षेत्रों में विकास की दर मंद है। राहुल गांधी पांच साल में उत्तर प्रदेश की सूरत बदल देने का दावा कर रहे हैं। वह विकास की आंधी से रोजगार के अवसरों की बाढ़ लाएंगे ताकि उत्तर प्रदेश के युवाओं को उनके बयान के अनुसार मुंबई और अन्य महानगरों में भीख मांगने के लिए नहीं जाना पड़े। जरा, केंद्रीय परियोजनाओं पर नजर डालें। आधारभूत संरचनाओं का विकास किए बिना किसी भी क्षेत्र में प्रगति करना संभव नहीं है। सरकार ने प्रतिदिन बीस किलोमीटर हाईवे बनाने का लक्ष्य रखा था, जबकि जमीनी वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। चालू केंद्रीय परियोजनाओं में से 65 प्रतिशत योजनाओं में इतनी देरी हो चुकी है कि तय लक्ष्य प्राप्त कर पाना सरकार के लिए असंभव हो गया है। देरी के कारण निर्माण सामग्री के दाम बढ़ जाने से सरकारी खजाने को 1800 करोड़ रुपये का चूना अलग लगा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में आक्रामक तेवर लिए घूम रहे कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की बदहाली के लिए गैर-कांग्रेसी दलों को भले ही कोस रहे हों, किंतु क्या इसके लिए कांग्रेस की जवाबदेही अन्य दलों से बड़ी नहीं है? प्राय: समूचे देश में आजादी के बाद के चार दशक तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा है। व्यवस्था क्यों नहीं बदली? आज कांग्रेस मुसलमानों का मसीहा बनने का स्वांग कर रही है। पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में से 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक वर्ग के लिए तय करने की घोषणा कर कांग्रेस एक बार फिर मुसलमानों को ठगना चाहती है। मुसलमानों के कल्याण के लिए सच्चर कमेटी के बाद रंगनाथ मिश्र आयोग ने जो संस्तुतियां की थीं उनमें से कितनों को सरकार पूरा कर पाई? राहुल और सोनिया गांधी ने दावा किया है कि चुनाव बाद किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेंगे, किंतु केंद्र में गठबंधन करने से परहेज क्यों नहीं किया? प्रधानमंत्री सरकार की अक्षमता के पीछे गठबंधन दलों का दबाव बताते आए हैं। एक जनहितैषी पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस राजनीतिक अवसरवाद को ज्यादा प्राथमिकता क्यों देती है? वस्तुत: जैसा कि स्वयं राहुल गांधी ने भी पिछले दिनों कहा, कांग्रेस की नजर इन दिनों धनुर्धर अर्जुन की तरह सिर्फ सत्ता पर केंद्रित है। पिछले 22 सालों से यूपी ने कांग्रेस को हाशिए पर डाल रखा है। उस खोए जन विश्वास को वापस पाने के लिए कांग्रेस जिस तरह संवैधानिक निकायों पर हमला कर रही है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर वोट बैंक की राजनीति कर रही है उससे चुनावों में लाभ होना तो शायद संभव न हो, किंतु राष्ट्रहितों को क्षति पहुंचने का खतरा अवश्य है। (लेखक राज्यसभा सदस्य हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
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