Tuesday, July 12, 2011

सुशासन की मौलिक समस्या


विषय है कि लोकपाल की नियुक्ति कौन करेगा? अन्ना हजारे की मांग है कि न्यायाधीशों, नागरिकों एवं संवैधानिक पदाधिकारियों द्वारा नियुक्ति की जाए। मेरी समझ से नियुक्ति की इस प्रक्रिया से समाधान नहीं होता। चयन समिति में इन व्यक्तियों में से किसकी नियुक्ति होगी, यह कौन तय करेगा? अंतत: यह कार्य सरकार को ही करना पड़ेगा। सरकार चाहेगी तो चयन समिति में भ्रष्ट व्यक्तियों की नियुक्ति कर सकेगी जैसा सीवीसी थॉमस प्रकरण में हुआ था। नागरिकों में अनेक भ्रष्ट हैं। न्यायाधीशों में भी भ्रष्ट हैं। संवैधानिक पदाधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। यदि ये भ्रष्ट न होते तो आज तक स्वत: भ्रष्टाचार नियंत्रित हो जाता। सच यह है कि देश के शीर्ष नेता स्वयं भ्रष्ट हैं। हवाला और बोफोर्स प्रकरण में इनके भ्रष्टाचार में लिप्त होने के पर्याप्त संकेत उपलब्ध थे, परंतु संवैधानिक पदाधिकारियों के भ्रष्ट होने से कार्रवाई नहीं की गई। अत: स्वतंत्र लोकपाल की नियुक्ति लगभग असंभव लगती है। सही है कि सरकार द्वारा संतोष हेगड़े एवं किरण बेदी जैसे किन्हीं ईमानदार व्यक्तियों की नियुक्ति की गई है, किंतु इसे अपवाद ही मानना चाहिए। अपवादों के आधार पर व्यवस्था बनाना उचित नहीं है। हमें बाहर से सरकार पर नियंत्रण का रास्ता ढूंढना होगा। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें सरकार का तनिक भी दखल न हो। यह व्यवस्था दो स्तर पर बनाई जा सकती है। पहला स्तर संसद का है और दूसरा स्तर विचारकों का है। वर्तमान शासन व्यवस्था का स्वरूप वास्तव में पार्टी तंत्र का है। यह लोकतंत्र है ही नहीं, क्योंकि चयनित सांसद पर पार्टी की व्हिप की तलवार लटकती रहती है। पुन: टिकट पाने के लिए भी सांसद को पार्टी के नेताओं के इशारे पर नाचना होता है। किसी ज्ञापन पर एक प्रमुख पार्टी के लगभग 20 सांसदों ने अपने स्वतंत्र विवेक से दस्तखत कर दिए थे। इस पर पार्टी के शीर्ष नेताओं ने उन्हें फटकार लगाई। तात्पर्य यह है कि वर्तमान में सांसदों की चाल पार्टी के शीर्ष नेताओं के हित साधने की दिशा में होती है। जानकार बताते हैं कि प्रमुख पार्टियों के नेताओं में अलिखित समझौता हो चुका है कि वे एक-दूसरे के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार एवं काले धन पर आवाज नहीं उठाएंगे। अत: सरकार द्वारा लोकपाल की जो पहल की जा रही है वह दिखावटी है, जैसे जेबकतरा मुसाफिर के सामान को उठवाने में मदद करता है और मौका मिलते ही हाथ साफ कर देता है। दरअसल, ऐसा रास्ता ढूंढ़ना है जो पार्टी तंत्र की दखल से बाहर हो। सुझाव है कि ईमानदार लोग निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ें। लक्ष्य होना चाहिए कि ऐसे सौ सांसदों को जिताकर लाएं। इन प्रत्याशियों का संकल्प होगा कि वे किसी भी पार्टी को समर्थन नहीं देंगे और हर विषय पर अपना स्वतंत्र मत डालेंगे। सरकार सदा अल्पमत में रहेगी। किसी भी कानून को पारित कराने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को इन निर्दलीय सांसदों में से कुछ का समर्थन प्राप्त करना ही होगा। इन सांसदों द्वारा दिया गया मत जनता की आवाज के अनुरूप हो सकता है,क्योंकि ये पार्टी के अंकुश से बाहर होंगे। विशेष बात है कि यह व्यवस्था वर्तमान संवैधानिक ढांचे में लागू हो सकती है अन्यथा हम न नौ मन तेल न राधा नाचे के झंझट में उलझ कर रह जाएंगे। सरकार लोकपाल कानून नहीं बनाएगी। बिना कानून बनाए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा नहीं। समस्या है कि पिछले 60 वषरें में स्वतंत्र प्रत्याशियों की गति निराशाजनक रही है। हमें इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए, क्योंकि वर्तमान स्वतंत्र सांसद पार्टी से व्यक्तिगत समीकरण न बैठने के कारण स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते हैं। इनकी विचारधारा में विशेषता नहीं है। प्रस्तावित स्वतंत्र प्रत्याशियों के समूह को जनता को समझाना होगा कि हम सब मिलकर सरकार पर नियंत्रण करेंगे। अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, किरण बेदी को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ना चाहिए। दूसरे स्तर की व्यवस्था भी बनानी चाहिए। जरूरत है कि स्वतंत्र सत्यभाषी लोगों की मित्रमंडली बनाई जाए। समाज में तमाम व्यक्ति हैं जो अपने सीमित क्षेत्र में बिना किसी लाभ की आशा के जनहित के लिए काम कर रहे हैं। कोई गरीब को मदद कर रहा है, कोई भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ रहा है, कोई जंगल बचाने के प्रयास कर रहा है तो कोई शोध कर रहा है। जैसे एक कर्मचारी यूनिवर्सिटी में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध हाईकोर्ट में याचिका डालता है और दूसरा सामाजिक कार्यकर्ता हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट द्वारा जनता के अधिकारों के हनन का विरोध करता है। तीसरा पुलिस का शीर्ष अधिकारी सरकारी सेवा से त्यागपत्र देकर शासन तंत्र के संबंध में पुस्तिकाएं लिखता है। वर्तमान में ये सत्यभाषी व्यक्ति अपने को अकेला और असहाय महसूस करते हैं। इस तरह के तमाम लोग बिना फंडिंग के, बिना किसी पद के, बिना किसी लाभ की आशा के कार्य कर रहे हैं। ये अपना समय और पैसा आत्मसंतुष्टि के लिए लगाते हैं। इनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षा नहीं होती है। ये लोग ही सच्चे मायने में गांधीजी द्वारा बताए गए रचनात्मक कार्यकर्ता हैं। ऐसे स्वतंत्र, असंगठित, स्वप्रेरित, सत्यनिष्ठ एवं राष्ट्रभक्त लोगों का नेटवर्क बनाना चाहिए। जिस प्रकार कुंभ मेले में तमाम धर्मगुरु आते हैं और आपस में चर्चा करते हैं, उसी तरह इन स्वतंत्र व्यक्तियों का कुंभ मिलन आयोजित करना चाहिए। आपसी मेलजोल से सबकी ऊर्जा में वृद्धि होगी। स्वतंत्र विचारकों का यह समूह सच बोल सकता है। सभी पार्टियों के शीर्ष नेताओं ने विदेश में काला धन जमा कर रखा है। इस बात को ये निर्भीकतापूर्वक कह सकते हैं, क्योंकि ये किसी भी प्रकार से शासन तंत्र पर निर्भर नहीं हैं। इस कुंभ मेले में उन व्यक्तियों को विशेष तौर से बुलाना चाहिए जो अंतर्मुखी हैं, जो किसी सामाजिक कार्य में लगे हुए हैं तथा जो नौकरी नहीं करते हैं। इस नेटवर्क से समाज में स्वतंत्र वैचारिक केंद्रों की ऊर्जा बढ़ेगी, समाज को सुविचार मिलेंगे और सांसदों एवं पार्टियों पर दबाव बनेगा। स्वतंत्र सांसदों एवं स्वतंत्र विचारकों के माध्यम से ही भ्रष्ट पार्टी तंत्र पर अंकुश लगाना संभव होगा। लोकपाल का अंत में वही हश्र होगा जो सीवीसी, न्यायाधीश आदि पदों का हुआ है। इस दिशा में ऊर्जा नहीं लगानी चाहिए। कहना चाहूंगा कि अन्ना हजारे एवं बाबा रामदेव के आंदोलन का मैं तहे दिल से समर्थन करता हूं। मेरे विचारों में उनकी आलोचना नहीं है, बल्कि इस आंदोलन पर मित्रवत चर्चा की ओर एक कदम है। 

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