Thursday, July 7, 2011

तेलंगाना का सियासी तूफान

आंध्र प्रदेश कांग्रेस के हाथ से तेजी से फिसल रहा है। 2004 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में कांग्रेस की वापसी में आंध्र प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण योगदान था। 2004 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में अलग तेलंगाना राज्य बनाने का समर्थन किया था। इसी आधार पर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति का चुनावी गठबंधन हुआ था। वाईएसआर राजशेखर रेड्डी की मर्जी के खिलाफ टीआरएस से गठबंधन गुलाम नबी आजाद ने करवाया था। केंद्र में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस न केवल अपना वायदा भूल गई, बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष चंद्रशेखर राव और उनके साथियों का तिरस्कार भी किया। ज्यादा शोर मचा तो सरकार ने प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक उपसमिति बना दी। उपसमिति का गठन मामले का हल खोजने की बजाय उसे टालने के मकसद से किया गया था। विवादास्पद मामलों को हल करने के लिए सरकारें और नेता अक्सर टालमटोल की नीति का सहारा लेते हैं, लेकिन केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने निष्कि्रयता को राजनीतिक रणनीति बना लिया है। यह सरकार रुके हुए फैसलों की सरकार बन गई है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रहते आर्थिक सुधार के फैसले पिछले सात सालों से रुके हुए हैं। पहले चार साल वामपंथी दलों की अड़ंगेबाजी का बहाना था। तीन साल से वह भी नहीं है। चुनाव सुधार पर चुनाव आयोग की सिफारिशें हों या महिला आरक्षण विधेयक, सरकार ने आम सहमति बनाने की या तो कोशिश नहीं की या आधे-अधूरे मन से की। कांग्रेस के भाग्य से देश की मुख्य विपक्षी पार्टी आपस के झगड़ों और अपनी अकर्मण्यता से और बुरी हालत में है। भारतीय जनता पार्टी को भारत की पुरानी क्रिकेट टीम की तरह जीत के मुंह से हार छीन लाने में महारथ हासिल है। कांग्रेस तेलंगाना के मुद्दे पर क्या चाहती है, यह किसी को पता नहीं है। सिवाय इसके कि बिना कुछ किए समस्या हल हो जाए। 2004 के लोकसभा चुनाव में वह अपने घोषणा पत्र में अलग राज्य बनाने का वायदा करती है। चुनाव के बाद इस दिशा में आगे की कार्रवाई के लिए उपसमिति बनाती है और फिर पल्ला झाड़ लेती है। दिसंबर 2009 में देश के गृहमंत्री संसद में आश्वासन देते हैं कि केंद्र सरकार अलग तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू करने जा रही है। घोषणा होते ही रायलसीमा और आंध्र के दूसरे क्षेत्रों में विरोध शुरू हो जाता है। सरकार के हाथ पांव फूल जाते हैं और वह एक बार फिर वायदे से मुकर जाती है। तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो जाता है। सौ से ज्यादा लोग मारे जाते हैं। स्कूल कालेजों में पढ़ाई लगभग ठप हो जाती है। सरकार फिर टालने के लिए न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा की अध्यक्षता में एक समिति बना देती है। समिति अपनी सिफारिश में कई विकल्प सुझाती है। सारे विकल्प राज्य को एक रखकर ही सुझाए गए हैं। श्रीकृष्णा समिति की रिपोर्ट आने के छह महीने बाद तक सरकार उस पर अमल तो दूर किसी विकल्प पर राजनीतिक सहमति बनाने का प्रयास भी नहीं करती। न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा ने अपनी रिपोर्ट के अंत में सरदार पटेल का उद्धरण देते हुए सरकार को एक तरह से चेतावनी दी है कि-वास्तविकता को नजरअंदाज करना मूर्खता है। सच का सही तरीके से सामना न किया जाए तो वह पलटकर प्रतिशोध लेता है। तेलंगाना का सच कांग्रेस और केंद्र की संप्रग सरकार से अपना प्रतिशोध ले रहा है। तेलंगाना क्षेत्र के 119 (एक सीट इस समय खाली है) विधायकों में से सौ से ज्यादा इस्तीफा दे चुके हैं। सत्रह में से 14 सांसद इस्तीफा दे चुके हैं। विधानसभा अध्यक्ष नौ जुलाई तक विदेश में हैं इसलिए विधायकों के इस्तीफे अभी मंजूर नहीं हुए हैं। कांग्रेस की असली मुश्किल उससे पहले ही शुरू होने वाली है। वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष और दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी की पार्टी का पहला महाअधिवेशन आठ जुलाई से कडप्पा में शुरू हो रहा है। जगनमोहन ने राज्य के विभाजन के विरोध की अपनी रणनीति बदल दी है। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन और उनकी पार्टी कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा खतरा है। तेलंगाना क्षेत्र के जगन समर्थक विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया है। विपक्षी विधायकों को तो छोडि़ए कांग्रेस अपने विधायकों और सांसदों को नहीं समझा पा रही है। विपक्ष कांग्रेस के सांसदों और विधायकों के इस्तीफे को नाटक बता रहा है। कांग्रेस सांसदों और विधायकों का कहना है कि वे इस्तीफा इसी शर्त पर वापस लेंगे कि कांग्रेस कार्यसमिति तेलंगाना राज्य के गठन के समर्थन में प्रस्ताव पास करे और सरकार इस दिशा में कार्रवाई शुरू करे। इसके बिना उनके लिए अपने चुनाव क्षेत्र में जाना भी कठिन है। आंध्र प्रदेश संवैधानिक संकट की ओर बढ़ रहा है। राज्य सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का प्रश्न लगभग अप्रासंगिक हो गया है, क्योंकि सरकार बहुमत में हो तो भी सौ से ज्यादा विधायकों के इस्तीफे के बाद सरकार के बने रहने के नैतिक औचित्य पर सवाल उठेगा। किरण रेड्डी की सरकार बहुमत के आधार पर बनी रहती है तो विधायकों के इस्तीफे मंजूर होने के छह महीने के भीतर उसे इतनी बड़ी संख्या में उप चुनाव का सामना करना पड़ेगा। इन परिस्थितियों में आंध्र प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगना तय है। अब सवाल है कि केंद्र सरकार और कांग्रेस के सामने विकल्प क्या हैं। श्रीकृष्णा कमेटी की सिफारिशों के बाद सरकार के सामने एक विकल्प था कि वह तेलंगाना क्षेत्रीय परिषद बनाकर उसके विकास के लिए और आर्थिक अधिकार देती। छोटे राज्यों की मांग के मूल में उस क्षेत्र विशेष के विकास की अनदेखी और उस क्षेत्र के लोगों को समावेशी विकास से वंचित रखना है। तेलंगाना के लोगों की इस शिकायत को दूर करने के लिए कांग्रेस और केंद्र सरकार के पास सात साल का समय था, जो उसने अपनी अकर्मण्यता से गंवा दिया। अलग राज्य के गठन का आंदोलन जिस मोड़ पर पहुंच गया है वहां से आंदोलनकारियों के लिए पीछे लौटना संभव नहीं है। सरकार ने अपने ही नहीं आंदोलनकारियों के विकल्प भी सीमित कर दिए हैं। किसी समस्या पर राजनीतिक आमराय बनाने के मामले में इस सरकार का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। आंध्र प्रदेश की राजनीति को बवंडर में फंसाने के लिए केंद्र सरकार सीधे तौर पर जिम्मेदार है। आंध्र की समस्या केंद्र सरकार ने पैदा की है और उसका हल भी दिल्ली से ही होगा। आंध्र प्रदेश की आंच दिल्ली तक आने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। केंद्र सरकार और कांग्रेस के राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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