Saturday, July 30, 2011

बगावत से डरी भाजपा ने टाली बैठक


नई दिल्ली भाजपा आलाकमान के सख्त रवैये के चलते गुरुवार को ही मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए तैयार हो गए बीएस येद्दयुरप्पा अब अपनी पसंद का उत्तराधिकारी तय होने तक इस्तीफा न देने पर अड़े हुए हैं। इसके लिए उनके समर्थकों ने केंद्रीय पर्यवेक्षकों, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह व राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के सामने ही मोर्चा खोल दिया है। लगभग 70 विधायकों व 14 सांसदों ने येद्दयुरप्पा को ही मुख्यमंत्री बरकरार रखने की मांग की। यह एक तरह से येद्दयुरप्पा का शक्ति प्रदर्शन था, जिससे वह राज्य में सत्ता परिवर्तन के सूत्र अपने हाथ में रखना चाहते हैं। येद्दयुरप्पा अपने उत्तराधिकारी के रूप में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व सांसद सदानंद गौड़ा को लाना चाहते हैं। सबसे बड़ी समस्या येद्दयुरप्पा के इस्तीफा न देने से खड़ी हो रही है। जब तक वह इस्तीफा नहीं देते हैं पार्टी नया नेता नहीं चुन सकती है। दोपहर बाद जब राजनाथ सिंह व जेटली येद्दयुरप्पा से मिलने पहुंचे तो येद्दयुरप्पा ने उनके सामने ज्योतिषीय कारणों से 31 जुलाई तक इस्तीफा न देने की बात रखी। इसके चलते शाम को होने वाली विधायक दल की बैठक टालनी पड़ी। सूत्रों के अनुसार राज्य में नए घटनाक्रम में बेल्लारी के दोनों रेड्डी बंधु भी फिलहाल येद्दयुरप्पा के साथ खड़े हैं। भाजपा नेतृत्व को यह आशा कतई नहीं थी कि येद्दयुरप्पा के साथ इतना समर्थन जुड़ सकेगा। अब उसके सामने येद्दयुरप्पा की बात मानने की मजबूरी बढ़ गई है क्योंकि इस मोड़ पर वह सरकार गंवाने का खतरा भी नहीं उठा सकती है। दिन भर चली चर्चाओं के दौर में नए नेता के नाम पर भी फिलहाल कोई सहमति नहीं बन सकी है। येद्दयुरप्पा खेमे से सदानंद गौड़ा के अलावा वीएस आचार्य का नाम भी है। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व अनंत कुमार के साथ जगदीश शेट्टार, सुरेश कुमार व ईश्वरप्पा के साथ सभी नामों पर विधायकों को टटोलना चाहता है। येद्दयुरप्पा किसी को उप मुख्यमंत्री भी नहीं चाहते हैं। एक फार्मूले में वोकलिग्गा या ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनने के चलते सामाजिक समीकरण साधने के लिए लिंगायत समुदाय के जगदीश शेट्टार को उपमुख्यमंत्री बनाने की बात भी आई थी। येद्दयुरप्पा चाहते हैं कि राज्य में मुख्यमंत्री तो उनकी पसंद का हो ही, प्रदेश संगठन भी उनके हाथ में रहे। इसके लिए वह प्रदेश अध्यक्ष बनना चाहते हैं, लेकिन पार्टी उन्हें केंद्र में उपाध्यक्ष बनाए जाने के पक्ष में है। मालूम हो कि येद्दयुरप्पा ने बुधवार देर रात दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी व अन्य नेताओं के साथ बैठक में भी अडि़यल रवैया अपनाया था। अपना पक्ष रखने के लिए वह अपने साथ राज्य के महाधिवक्ता को भी साथ लाए। रात तीन बजे तक चली इस बैठक में महाधिवक्ता ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को हाईकोर्ट में चुनौती देने व उसमें सरकार के साफ तौर पर बच निकलने को लेकर दलीलें भी दी थीं।



Thursday, July 28, 2011

अय्यर ने कांग्रेस को सर्कस बताया


 ई दिल्ली पहले से ही भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जूझ रही कांग्रेस को विपक्ष भी उतनी चोट नहीं दे पा रहा, जितना कि उसके वरिष्ठ नेता। पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस से ही राज्यसभा सदस्य मणिशंकर अय्यर ने कांग्रेस को सर्कस बता डाला। साथ ही जोड़ा कि हर कांग्रेसी इस सर्कस में खुद को बेहतर जगह पर स्थापित करने की जिद्दोजहद में लगा है। अय्यर के बयान से असहज कांग्रेस टिप्पणी करने से तो बच रही है, लेकिन पार्टी के ही दूसरे वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री को जोकर करार दे डाला। जबकि कांग्रेस के भीतर चल रहे इस सर्कस के दूर से मजे ले रही भाजपा ने इस पर कुछ ज्यादा टिप्पणी करने से परहेज किया। अय्यर ने एक पुस्तक विमोचन के दौरान अपनी बेलाग टिप्पणी में कह दिया कि पद पाने के लिए लोग सोनिया गांधी से लेकर उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल के चक्कर लगाते हैं और जो कुछ नहीं पाते वे कांग्रेस दफ्तर में डेरा जमाते हैं। पार्टी की मुश्किलें बढ़ाने वाले बयान में अय्यर ने कहा कि जिनके काम बन जाते हैं उनकी पहुंच 10, जनपथ तक होती है, जबकि जिनको अपना काम बनने की आस होती है वे 23 ,वेलिंगटन क्रीसेंट के चक्कर लगाते हैं। 24, अकबर रोड तो वे लोग आते हैं, जिनकी सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी होती हैं। ध्यान रहे कि 10, जनपथ सोनिया गांधी का आवास है तो 23, वेलिंगटन क्रीसेंट अहमद पटेल का, जबकि 24, अकबर रोड कांग्रेस मुख्यालय है। अय्यर इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि उम्मीद खो चुके लोग कांग्रेस दफ्तर इस आस से आते हैं कि यहां मेज-कुर्सी लगाए बैठे लोगों से मुलाकात कर शायद उनका काम बना पाए, लेकिन कम लोग ही यह जानते हैं कि यहां बैठे 10 लोगों में आधे वे होते हैं जो किसी ऊंची कुर्सी या ओहदे की दौड़ में लगे होते हैं, बाकी पांच हाशिए पर जा रहे होते हैं। कई बार लोग सफल होते हैं तो कई बार असफल। यह एक तरह का मेला है और हर कांग्रेसी को इस सर्कस में शामिल होना ही पड़ता है। अय्यर की टिप्पणी से कांग्रेस नेतृत्व न सिर्फ असहज है, बल्कि नाराज भी। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने तो बस इतना ही कहा कि, आप मणिशंकर को जानते ही हैं। लेकिन वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी उन पर कटाक्ष करने से नहीं चूके। चतुर्वेदी ने कहा कि कहीं अय्यर सर्कस के जोकर तो नहीं हैं! दूसरी ओर भाजपा के मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि मणिशंकर अय्यर खुद राजीव गांधी और सोनिया गांधी के बेहद करीब रहे हैं। उनको साहित्यिक कोटे से राज्यसभा में कांग्रेस ही लाई। अगर वे कांग्रेस के बारे में कोई टिप्पणी करते हैं तो वे खुद ही सोचें।

चिढे़ चिदंबरम भाजपा पर बरसे


मुंबई सीरियल ब्लास्ट की जांच और खुफिया जानकारी जुटाने में नाकामी के लिए लगातार आलोचना का शिकार हो रहे गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सोमवार को आतंकवाद के सहारे मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा पर जोरदार राजनीतिक हमला बोल दिया। भाजपा की ओर से 2जी मामले में खुद को निशाना बनाए जाने और इस्तीफा मांगे जाने के बाद चिदंबरम ने कहा कि दक्षिणपंथी आतंकी संगठनों की तेजी से हो रही जांच से घबरा कर यह पार्टी उन पर हमला कर रही है। चिदंबरम ने दक्षिणपंथी आतंकी संगठनों की ओर इशारा करते हुए कहा, सबको पता है कि इनका आका कौन है। इन मामलों के आरोपी, भगोड़े और जिनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल हो चुके हैं वे लोग कौन हैं? मक्का मस्जिद, अजमेर शरीफ, समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव विस्फोट का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ये हाल के दिनों के सबसे बड़े आतंकी हमले हैं, जिनकी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) जांच कर रही है, लेकिन इन्हें कौन बचा रहा है? सब जानते हैं कि इन मामलों के भगोड़े संघ और भाजपा के करीबी हैं। ये क्यों नहीं कानून के सामने आते? इन्हें कौन पनाह दे रहा है? उन्होंने कहा कि कम से कम नौ ऐसे मामले हैं, जिनमें दक्षिणपंथी आतंकी संगठनों के बम बनाने और निर्दोष लोगों की जान लेने के पक्के सबूत मिले हैं। चूंकि यूपीए सरकार ने इन मामलों की जांच को तेजी दे दी है, इसलिए भाजपा की ओर से उन्हें, दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि ये आतंकी संगठन निर्दोष लोगों की जान ले रहे हैं इसलिए सरकार इन मामलों से सख्ती से निपट रही है। चिदंबरम के इस बयान की भाजपा ने निंदा करते हुए इसे पाकिस्तान के रवैये के पक्ष में जाता हुआ बताया। भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा, 2जी घोटाले में जिस तरह रोजाना उनका नाम उजागर हो रहा है उससे निपटने के लिए चिदंबरम को कोई बेहतर रास्ता अपनाना चाहिए था। इस बयान से यह भी साफ हो रहा है कि मुंबई हमले के आरोपियों के खिलाफ यह सरकार कुछ नहीं करने के अपने रुख पर कायम है। भाजपा ने सोमवार को ही ए. राजा की ओर से अदालत में प्रधानमंत्री और तब के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का नाम लिए जाने के बाद इन दोनों पर जोरदार हमला बोला। इससे पहले दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के पदाधिकारी तो ऐसा आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन गृहमंत्री को ओर से भाजपा को सीधे आंतकवादी संगठनों से जोड़ने का बयान पहली बार आया है।

आरएसएस का हौवा


भारतीयता ही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीयता ही मंत्रिधर्म है। इस विचारधारा में आस्था रखने वालो को कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए। उन्होंने इस अवधारणा से लोगों को जोड़ने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम को आसान कर दिया है। जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई थी। 1952 में पहले लोकसभा चुनाव में जनसंघ को आधे निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार भी नहीं मिले थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सारे देश में विशेष कर दक्षिण भारत में जनसंघ की मुखर आलोचना की। तब जनसंघ अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि नेहरू हमारे सबसे बड़े प्रचारक हैं। उन्होंने देशभर में हमारी पहचान बनाई है। नेहरू वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। उनके नेतृत्व में जिस सरकार ने 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया उसी ने 1962 में चीनी हमले के बाद संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का निमंत्रण दिया। तबसे लेकर आज तक संघ को तीन बार प्रतिबंधित किया गया। पहले प्रतिबंध को उसने अपने संगठन की शक्ति के बल पर नाकाम किया। इसके बाद जब 1975 में इंदिरा गांधी ने प्रतिबंधित किया तो 1977 में संघ ने कांग्रेस को चुनावी शिकस्त देकर उसका मुकाबला किया। इसी प्रकार जब नरसिम्हा राव के कार्यकल में 1992 में प्रतिबंध लगा तो अदालत ने सारे आरोपों को निराधार करार देते हुए प्रतिबंध हटाने का आदेश दिया। आजादी के समय कांग्रेस के अलावा देश में समाजवादी और साम्यवादी पार्टियां ही थीं, जिनकी नीतियों में कोई मतभेद नहीं था। जनसंघ की स्थापना से एक वैचारिक भिन्नता मिली और नई राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ। आज कांग्रेस से भी अधिक राज्यों में भाजपा सत्तासीन है। साम्यवादी विचारधारा के संगठन सभी क्षेत्रों में ध्वस्त हो चुके हैं। भ्रष्टाचार और कुशासन की पहचान बनने से हताश कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौवा खड़ा कर वह देश के मुसलमानों के वोट के सहारे चुनावी नैया पार लगा लेगी। मुसलमानों में संघ के प्रति भय का जो कृत्रिम माहौल है उसको भड़काकर सभी गैर भाजपाई दल भयदोहन की राजनीति कर रहे हैं। अब तो मुसलमान भी इस भ्रामक प्रचार से ऊबने लगा है। बिहार में मुस्लिम गुमराह नहीं हुआ और गुजरात में भी निष्पक्ष व विकासोन्मुखी कामों ने उन्हें भ्रमित होने से रोका है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की छवि विकृत हो रही है। कांग्रेस में इससे बेचैनी है। आतंकी वारदातों में पाकिस्तानी हमलावरों के पकड़े जाने पर संतुलन बनाने के लिए हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा किया जाता है। अब सोनिया गांधी की सुपर कैबिनेट हिंदू विरोधी सांप्रदायिकता विरोधी विधेयक पास कराना चाह रही है। यह आश्चर्य की बात है कि जो कांग्रेस दिग्विजय सिंह की राय को उनकी निजी राय कहकर अपना पल्ला झाड़ रही है वही एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है जिसमें किसी संस्था अथवा व्यक्तिगत विचारों की अभिव्यक्ति या कृत्य के लिए गिरफ्तारी का प्रावधान है। दिग्विजय सिंह की नवीनतम सोच है संघ बम बनाने की फैक्टरी है। दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश में दो स्थानों पर काले झंडे दिखाए गए। टीवी पर उन्हें जिस तरह भागते हुए दिखाया गया उससे उनके हिम्मती होने की छवि की चिंता उन्हें भी करनी चाहिए। जिस तरह उन्होंने बिना छानबीन के राजस्थान के पत्रकार को संघी घोषित कर उत्तेजना पैदा करने की कोशिश की और बाद में गलत साबित हुए वही हाल उनके बाकी आरोपों का भी है। केंद्र सरकार आरोपों के संबंध में छानबीन में बड़ी तेजी दिखाती है। क्या उसे दिग्विजय सिंह से संघ को बम बनाने की फैक्ट्री बताने की जानकारी नहीं लेनी चाहिए? वह आतंकी घटनाओं में संघ का हाथ होने का दावा करते हैं, लेकिन जानकारी नहीं देते। जिन्हें बेवजह फंसाया जा रहा है उनके खिलाफ प्रतिनिधिमंडल को प्रधानमंत्री से मिलवाते हैं। प्रत्येक विस्फोट के बाद जांच एजेंसियां जिस दिशा में सक्रिय होती हैं उसके विपरीत बयान देना दिग्विजय सिंह का एकमात्र कार्यक्रम रहता है। अब तो वह भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाए गए अथवा जेल में डाले गए लोगों की भी सार्वजनिक रूप से वकालत कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह की इन हरकतों से मनमोहन सिंह की सरकार को परेशान होना चाहिए न कि हिंदुत्व के प्रति निष्ठावान लोगों को। कांग्रेसी तो परेशान हैं इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि अपने भावी प्रधानमंत्री के जिस चमत्कारी संचालन से उनको कुछ आस बंधी है उसे वह धूमिल करते जा रहे हैं। इसलिए जो लोग यह चाहते हैं कि देश की व्यवस्था का संचालन समाज को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त करने वालों के हाथ में आना चाहिए, उन्हें दिग्गी राजा का अभिनंदन करना चाहिए। वह उसी काम में लगे हुए हैं। जहां तक संघ का सवाल है वह ऐसे सभी कपोकल्पित आरोपों के बाद समाज में और अधिक पैठ बनाने के लिए अनुकूलता पाता जा रहा है। (लेखक पूर्व सांसद हैं).

मोदी विरोधियों के हाथों खेल रहे संजीव भट्ट


गुजरात दंगों के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराने वाले आइपीएस अधिकारी संजीव भट्ट अब अपने बचाव के लिए मोदी विरोधियों की शरण में है। सुप्रीम क ोर्ट के समक्ष दिए गए संजीव के बयान की कई बातें झूठ निकल रही हैं। ऐसे में खुद को बचाने के लिए वह कांग्रेसी नेताओं, वामपंथी कार्यकर्ताओं, नौकरशाहों और मोदी विरोधी सामाजिक कार्यकर्ताओं से मदद की गुहार लगा रहे हैं। भट्ट का इन सभी से ईमेल के जरिए हुआ सूचनाओं का आदान-प्रदान पूरे मसले में ऐसी ही साजिश के पुख्ता संकेत दे रहा है,जिसमें वह भी मोहरा बने। सूत्रों के मुताबिक, गोधरा मामलों की जांच कर रही एसआईटी को मिले भट्ट के ईमेल का ब्यौरा खुद उनके ही खिलाफ जा रहा है। ईमेल से गोधरा कांड के बाद 27 फरवरी, 2002 की रात उनके मुख्यमंत्री निवास पर हुई बैठक में शामिल रहने के दावे पर सवालिया निशान लग गए हैं। भट्ट ने सुप्रीमकोर्ट में 23 अप्रैल 2011 को दाखिल हलफनामे में आरोप लगाया है कि मोदी ने बैठक के दौरान अफसरों से कहा था कि हिंदुओं का गुस्सा निकल जाने दो और मुसलिमों को मुंहतोड़ जवाब देने दो, मगर भरपूर कोशिश के बावजूद वह बैठक में मौजूदगी का सुबूत नहीं जुटा पा रहे हैं। भट्ट ने यह भी दावा किया था कि मुख्यमंत्री आवास पर बैठक के दौरान उनकी पूर्व मंत्री हरेन पंड्या (बाद में उनकी हत्या हो गई) से भेंट हुई थी, जबकि पांड्या के काल रिकार्ड इस गलत ठहराते हैं। भट्ट ने अपने आईपीएस साथी राहुल शर्मा की मदद से पांड्या के गांधीनगर में होने के सुबूत तलाशने की भरसक कोशिश की। इस कड़ी में 12 से 22 मई, 2011 के बीच भट्ट व राहुल के बीच मेल पर लंबा पत्राचार भी हुआ। 22 मई की सुबह 7.42 पर राहुल ने भट्ट को मेल किया कि पांड्या के दिए गए नंबर पर आखिरी काल रात 10.52 पर आई उस समय वह गांधी नगर की तरफ नहीं बल्कि अपने क्षेत्र में थे। 27 की रात और 28 को तड़के तक उनके गांधीनगर में होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। इसके अलावा भट्टा लगातार तीस्ता सीतलवाड़ और कांग्रेस नेताओं के संपर्क में रहे। अप्रैल में कभी वकील तो कभी तथ्यों को लेकर उनकी तीस्ता, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अर्जुन मोडवाढि़या और विस में नेता प्रतिपक्ष शक्ति सिंह गोहित से लगातार बात होती रही। इस दौरान भट्ट ने कांग्रेस नेता गोहित से कागजों के साथ- साथ ब्लैकबेरी मोबाइल भी मंगाया और उसे पाने की पुष्टि की। भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी और एमाइकस क्यूरी (अदालत का मददगार) को भी प्रभावित करने के लिए सिविल सोसाइटी का सहारा लिया। इस कड़ी में गैर सरकारी संस्था अनहद की शबनम हाशमी और प्रशांत संस्था के फादर सेड्रिक प्रकाश को पत्र लिखकर अभियान चलाने की मदद भी मांगी। 9 मई को ऐसे ही संस्थाओं को पत्र भेजकर हस्ताक्षर अभियान की गुजारिश भी की.

दया याचिकाओं पर अपने ही नियम तोड़ रहा गृह मंत्रालय


 केंद्रीय गृह मंत्रालय खुद अपने बनाए नियम तोड़ रहा है। निचली अदालत से बाद में सजा पाए अपराधियों की याचिकाएं निपट गईं, पहले सजा पाए इंतजार ही कर रहे हैं। दरअसल, फांसी की सजा वाले कैदियों की दया याचिकाओं को निपटाने के लिए मंत्रालय ने नियम बनाया था कि सुनवाई अदालत से सजा होने के आधार पर याचिकाएं निस्तारित की जाएंगी, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। हैरानी की बात यह है कि संसद हमले के आरोपी मो. अफजल व दो अन्य के मामले तो गृहमंत्रालय के स्तर पर ही विचाराधीन हैं। एक याची तो डेढ़ दशक से ज्यादा समय से जेल में अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। मंत्रालय ने सुभाष चंद्र अग्रवाल की आरटीआइ अर्जी के जवाब में दया याचिकाओं से संबंधित मामलों की जो सूची दी है, उसको देखने पर स्पष्ट होता है कि मंत्रालय अपने ही बनाए नियम तोड़ रहा है। मंत्रालय के मुताबिक, राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इसी साल 8 मई को दिल्ली में 1995 में हुए बम विस्फोट कांड में टाडा अदालत से 25 अगस्त 2001 को फांसी की सजा पाए देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर और हत्या के मामले में असम के कामरूप जिले की अदालत द्वारा अगस्त 1997 में दोषी करार महेंद्र नाथ दास की दया याचिकाएं खारिज कर दी हैं। जबकि इन दोनों से कई साल पहले निचली अदालत से सजा पाए लोगों की याचिकाएं लंबित हैं। इनमें सबसे पुराना मामला उप्र के गुरमीत सिंह का है। 17 अगस्त 1986 में हुए सामूहिक नरसंहार मामले में सत्र न्यायालय ने गुरमीत को 20 सितंबर 1992 में फांसी की सजा दी थी। इसी प्रकार हरियाणा में 9 जून 1993 को हुए सामूहिक हत्याकांड में निचली अदालत ने धर्मपाल को 5 मई को फांसी दी थी। उसकी याचिका भी 11 साल से राष्ट्रपति के पास लंबित है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कातिलों को सुनवाई अदालत ने 28 जनवरी 1998 में फांसी की सजा सुनाई थी, उनकी दया पांच साल से लंबित है। ऐसे ही कई अन्य मामले हैं.

Wednesday, July 27, 2011

राजनीतिक प्रयोग का समय


आखिर हमारे देश में राष्ट्रस्तरीय नेतृत्व का अकाल क्यों है? सवाल यह भी बनता है कि आज राष्ट्र स्तरीय नेतृत्व की आवश्यकता ही किसे है? जवाबों की तलाश हमें हमारी राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाती है। हमारी राजनीति आज अगर राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं पैदा कर रही है तो कहीं इसके लिएहमारी व्यवस्था तो जिम्मेदार नहीं है? हमारे राष्ट्रीय नेता तो आजादी के आंदोलन की उपज थे। राष्ट्रीय नेताओं की जाति का खत्म हो जाना एक बड़ा सरोकार है। कारण? क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता पर हावी हो चली है। हमने अनेक प्रधानमंत्री देखे हैं जिनको देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में सोचा ही नहीं था। सांसदगण द्वारा चुना गया नेता मूलत: सांसद होता है। अत: मात्र एक संसदीय क्षेत्र हमारे नेतृत्व की स्वत: सीमा बन जाता है। चूंकि संपूर्ण राष्ट्र किसी का चुनाव क्षेत्र नहीं बनता इसलिए राष्ट्रीय नेताओं की संभावनाएं समाप्त होती गई हैं। विकास की ओर अग्रसर इस देश में लीक से हटकर परिवर्तन के बारे में सोचना जरूरी हो गया है। गठबंधन की मजबूरियां हमें अपंग कर कहीं गुलाम न बना दें। अमेरिका में गवर्नर का सीधे जनता द्वारा चुनाव होता है। प्रतिनिधि सभाओं के चुने हुए प्रतिनिधि एक्ट पास कराने, बजट व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते हैं, लेकिन वे गवर्नर को हटा नहीं सकते। चार वषरें तक स्थिरता का वातावरण गवर्नर को विकास की सोच का अवसर देता है। इस कारण अमेरिका में राज्यपालों पर राजनीतिक दबाव की संभावनाएं बहुत कम हो जाती हैं। प्रतिनिधिगण कानून बनाने के दायित्वों का निर्वहन करते हैं। चूंकि प्रतिनिधि की मुख्यत: भूमिका विधिक होती है, अत: दबंगों, माफियाओं, दादाओं का प्रतिनिधि सभा में कोई काम ही नहीं है। इसलिए अमेरिका में कोई माफिया किस्म का आदमी चुनाव लड़ता नहीं दिखता। अमेरिकी राष्ट्रपति कोई भी हो, बराबर का शक्तिशाली होता है और हमारा प्रधानमंत्री? नेहरू बहुत शक्तिशाली थे लेकिन कुछ अन्य के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता? अब व्यवस्थाओं के बदलने से हमारी स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जैसे कि किसी राच्य की राजनीति में खनन माफियाओं की बड़ी भूमिका है। उनकी सशक्त लॉबी के सामने सरकारें, मुख्यमंत्री तक असहाय हो जाते रहे हैं। ऐसी स्थिति में नैतिक-अनैतिक, स्याह-सफेद प्रश्नों को दरकिनार कर सत्ताधारी दल येन-केन-प्रकारेण अपनी सरकार का अस्तित्व बचाने में लगा रहता है। नतीजन, बिना किसी जिम्मेदारी, जवाबदेही के एक अनैतिक सत्ता केंद्र का जन्म हो जाता है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिफल यह है कि हमें दिन-रात 24 घंटे की वह राजनीति झेलनी पड़ती है, जो 5 वर्ष के अंतराल में एक बार होनी चाहिए। फर्ज करें कि एक पुलिस अधीक्षक है, जो अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर अच्छा कार्य कर रहा है। उसका अच्छा होना राज्य के तो हित में है, लेकिन हो सकता है कि यह बात स्थानीय मठाधीश के हित के विपरीत हो। वह किसी थानेदार को उसकी अकर्मण्यता के कारण हटाना चाहता है तो अक्सर हटा नहीं पाता। दबावों, समीकरणों से प्रभावित प्रशासन में प्राय: राच्यों के लक्ष्यों के प्रति समर्पण में कमी हो जानी स्वाभाविक है। राच्यों के शीर्ष नेतृत्व के लिए स्थानीय सत्ता समीकरणों में प्रभावी बन चुके नेता को दरकिनार कर सकना संभव नहीं होता। हमारी राजनीति सत्ता की दहलीज तक पहुंच कर आगे लक्ष्यहीन हो जाती है। राजनीतिक बाध्यताओं के कारण बहुत से नीति-नियामक महत्वपूर्ण पदों को समझौतों में दे देना पड़ता है। हमने देखा है कि विकास का ककहरा भी न जानने वाले प्रदेशों के नेता बन बैठे हैं। वर्तमान लोकतंत्र ने जन जागरूकता, गरीब और उपेक्षित समाज तक सत्ता को पहुंचाने का काम बखूबी किया है, लेकिन अब से आगे के लिए राष्ट्रपति या अध्यक्षीय शासन प्रणाली ही अधिक उपयुक्त होगी। समझना जरूरी है कि देश का सबसे शक्तिशाली पद असहाय क्यों हो रहा है? क्षेत्रीय पार्टियों, छोटे राच्यों, जातीय-भाषिक समूहों को प्रश्रय मिलता दिख रहा है। इसके विपरीत राष्ट्रपति, राच्यपाल प्रणाली में विभाजन के स्थान पर संयोजन को सत्ता का माध्यम बनाना मजबूरी होगी। राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए अनिवार्य होगा कि वह मणिपुर, पांडिचेरी जैसे छोटे राच्यों से भी आवश्यक मत प्राप्त करें। अगर आप राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं तो आप बांग्ला भी सीखेंगे और मराठी भी। यहां से राजनीति के राष्ट्रीय एकता की दिशा में उन्मुख होने की शुरूआत हो सकती है। संविधान समिति की कार्यवाहियों में 8 एवं 9 जून 1947 को राष्ट्रपति प्रणाली का बिंदु इमाम हुसैन, शिब्बन लाल सक्सेना द्वारा उठाया तो गया था, किंतु गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्ठभूमि के कारण यह बिंदु गहन विचार का विषय नहीं बना। बाबा साहब ने 4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में कहा था लोकतांत्रिक कार्यपालिका प्रथमत: स्थिर होनी चाहिए और फिर जिम्मेदार होनी चाहिए। अमेरिकी व्यवस्था स्थिर अधिक है, जबकि ब्रिटिश व्यवस्था जिम्मेदार अधिक है। आज की स्थितियों के रूबरू बाबा साहब के विचार क्या होते, इसकी कल्पना की जा सकती है। जब स्थिरता ही न होगी तो जिम्मेदारी का प्रश्न ही गौण हो जाता है। राजनीति में प्रयोगशालाएं नहीं होतीं, फिर भी प्रयोगधर्मिता के लिए सदैव संभावनाएं हैं। हिमाचल, उत्तरांखड, झारखंड, सिक्किम, गोवा, पांडिचेरी आदि छोटे राज्यों में मुख्यमंत्रियों के स्थान पर जनता द्वारा निर्वाचित राज्यपालों की व्यवस्था पर सहमति बनाने का प्रयास किया जा सकता है। स्थिरता विकास की चाभी है। स्थिरता के लिए यह राजनीतिक प्रयोग करके देखा जा सकता है। यदि यह सफल हुआ तो इससे छोटे राज्यों के तर्क को मजबूती मिलेगी। वे व्यवस्थाएं जो परिवर्तनों के अनुरूप ढलने से इंकार करती हैं उनका समूल नाश क्रांतियों से होता है। राजनीतिक व्यवस्था में भी विकास की अपेक्षा है। क्या हमारी व्यवस्था संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुरूप परिणामपरक रही हैं? 24 घंटे की राजनीति का उलझाव हमारी शक्तियों का इस हद तक अपव्यय करता है कि हम राष्ट्र के प्रति समर्पित दृष्टि विकसित ही नहीं कर सके हैं। हिलेरी क्लिंटन इस दौरे में कह गई हैं कि भारत के लिए यह एशिया के नेतृत्व का समय है। हम क्या करें? राष्ट्र का कद बढ़ रहा है और नेतृत्व का कद छोटा हो रहा है। हमारे पास प्रदेश और देश की जनता से सीधे संवाद कर सकने, उनमें प्रेरणा भर देने वाले नेताओं का सर्वथा अभाव है। वर्तमान व्यवस्था में आसान रास्ता लेने वाले ऐसे नेताओं की गुंजाइशें बन गई हैं जिन्होंने जन-संघर्ष, जन-आंदोलनों का चेहरा तक नहीं देखा है। राजनीतिक व्यवस्था कोई धर्म नहीं है कि जो लिख दिया गया वह कभी मिटेगा नहीं। वक्त के साथ चलना राजनीति की जरूरत है। यह परिवर्तन, नई सोच और नए चरित्र के नेताओं की राह बनाएगा। (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं).

Tuesday, July 26, 2011

यूपी में भाजपा के शासन में मुस्लिमों पर कम हुए जुल्म


, नई दिल्ली यूपी के विस चुनाव के मद्देनजर मुस्लिम वोटों पर कब्जे को लेकर खुली जंग छिड़ गई है। राहुल गांधी की ओर से मुसलमानों को रिझाने की कोशिशों को सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने दिखावा करार दिया है। साथ ही आरोप लगाया कि कांग्रेस कभी भी मुस्लिमों की हितैषी नहीं रही है, बल्कि कुछ मामलों में तो उन पर (मुसलमानों) भाजपा के मुकाबले कांग्रेस शासन में ज्यादा अत्याचार हुआ है। मुलायम ने रविवार को यूपी का चुनाव अकेले लड़ने का एलान करते हुए मुस्लिम वोटों पर पकड़ बनाने की कोशिश की। उन्होंने सूबे के 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम वोटरों को आगाह करते हुए कहा, 62 वर्षो में कांग्रेस ने उनके लिए कुछ नहीं किया। सच्चर कमेटी समेत दूसरी समितियों की रिपोर्ट वर्षो से धूल खा रही है, लेकिन सरकार चुप है। मुस्लिम क्षेत्रों में न तो स्कूल खुले और न ही चुने हुए 90 जिलों में फंड खर्च हुआ है। उन्होंने कहा, सीएम रहते मैने पीएसी में मुस्लिमों को आरक्षण दिया। कांग्रेस ने उन्हें कभी कुछ नहीं दिया। भाजपा शासन में भी मुसलमानों पर उतना अत्याचार नहीं हुआ जितना कांग्रेस शासन में होता रहा है। भाजपा से भी बराबर की दूरी बनाते हुए कहा, विवादित ढांचा गिराकर भाजपा ने जो किया उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता है, लेकिन कांग्रेस के दिखावे और धोखे को भी कोई मुसलमान नहीं भूल सकता। मुलायम ने मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का समर्थन किया। मुलायम ने किया अमर का बचाव नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो : नोट के बदले वोट मामले में घिरे सपा के पूर्व नेता अमर सिंह को अपने पुराने नेताजी से समर्थन मिला है। मुलायम सिंह ने रविवार को उन्हें (अमर सिंह) निर्दोष करार देते कांग्रेस का षड्यंत्र बताया और भरोसा दिया कि जितना हो सकेगा वह उनकी मदद करेंगे। हालांकि यह भी साफ किया कि पार्टी में उनकी वापसी के लिए कोई जगह नहीं है। मुलायम ने कहा कि उस वक्त न तो सपा सरकार में शामिल हुई और न ही अमर व रेवती रमण मंत्री बने थे। फिर वह सांसदों की खरीद-फरोख्त में क्यों शामिल होते। दोनों नेताओं से पुलिस पूछताछ का विरोध करते हुए मुलायम ने कहा कि यह सपा को बदनाम करने की कांग्रेसी साजिश है। जब सरकार खतरे में थी, तो कांग्रेस समर्थन की गुहार लगा रही थी। सरकार गिराने की मुहिम का नेतृत्व भाजपा ने नहीं संभाला होता, तो सपा कभी सरकार का समर्थन नहीं करती। बहरहाल, मुलायम के समर्थन से अलग-थलग पड़े अमर सिंह का उत्साह बढ़ सकता है।


बेटे-बेटियों की पार्टी बन गई है भाजपा


भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा को पद से हटाने की सबसे पहले मांग करने वाले वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार ने पार्टी के शीर्ष नेताओं पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, भाजपा एक अलग तरह की पार्टी के रूप में सामने आई थी लेकिन अब हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक यह बेटों, बेटियों और रिश्तेदारों की पार्टी बनती जा रही है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शांता कुमार ने रविवार को यहां पत्रकारों से बातचीत में कहा, भाजपा एक अलग तरह के दल के रूप में सामने आई थी लेकिन बाद में यहां भी परिवार तंत्र ने लोकतंत्र की जगह ले ली। उन्होंने पार्टी की संरचना पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा,पहले भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी हुआ करती थी, लेकिन अब हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक यह बेटों, बेटियों और रिश्तेदारों की पार्टी बनती जा रही है। शांता कुमार ने मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा के खिलाफ कार्रवाई न किए जाने के लिए पार्टी आलाकमान को ही कटघरे में खड़ा किया। शांताकुमार के मुताबिक, उन्होंने कर्नाटक के पार्टी प्रभारी पद पर रहने के दौरान ही राज्य की स्थितियों के बारे में पार्टी आलाकमान को सूचना दे दी थी, लेकिन उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया गया। जो बातें लोकायुक्त संतोष हेगड़े अभी बता रहे हैं, मैं वह सब पहले जानता था। मैंने एक-एक बात की जानकारी आलाकमान को दे दी थी। साथ ही कहा था कि अगर येद्दयुरप्पा के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी है तो उन्हें राज्य के प्रभारी के पद से मुक्त कर दिया जाए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, हेगड़े की रिपोर्ट की गंभीरता को देखते हुए पार्टी को मुख्यमंत्री के खिलाफ कार्रवाई जरूर करनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि शांता कुमार ने शनिवार को येद्दयुरप्पा को हटाने के लिए हाल ही में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी और संसदीय दल के मुखिया लालकृष्ण आडवाणी को चिट्ठी लिखी थी। शांता कुमार ने अपने पत्र में लिखा था कि येद्दयुरप्पा को पद पर बनाए रखने से देश भर में पार्टी की छवि खराब होगी। इस मामले में पार्टी पहले ही काफी समझौता कर चुकी है। अब राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के लिए और ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अपने पत्र लिखने को जायज ठहराते हुए यह भी कहा था कि कर्नाटक सरकार में भ्रष्टाचार की खबरों पर वह चुप होकर नहीं बैठ सकते। इसलिए पत्र लिखने का फैसला किया। एकजुट होने लगे येद्दयुरप्पा विरोधी बेंगलूर : कर्नाटक में भी येद्दयुरप्पा विरोधियों ने लामबंदी शुरू कर दी है। राज्य के ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री जगदीश शेट्टर ने सोमवार को वरिष्ठ भाजपा नेता एच एन अनंत कुमार से भेंट की। अनंत कुमार को येद्दयुरप्पा विरोधी खेमे का माना जाता है। विधायकों की अयोग्यता के मामले में भी अनंतकुमार और मुख्यमंत्री विरोधी अन्य नेताओं ने लामंबदी कर येद्दयुरप्पा को हटाने की कोशिश की थी लेकिन केंद्रीय नेताओं का वरदहस्त होने के कारण येद्दयुरप्पा बच गए। येद्दयुरप्पा मामले में कार्रवाई के बाबत पूछे जाने पर भाजपा के वरिष्ठ नेता और येद्दयुरप्पा के करीबी समझे जाने वाले वेंकैया नायडू ने शनिवार को कहा था कि लोकायुक्त की रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर सामने आने के बाद पार्टी आवश्यक कार्रवाई करेगी। नायडू ने कहा था कि भाजपा मीडिया में लीक हुई रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं समझती। स्थिति अगले कुछ दिनों में साफ होगी।

चिदंबरम पर टिप्पणी को लेकर सोनिया ने फटकारा था


उत्तेजक टिप्पणियों को लेकर विवादों में रहने वाले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने पहली बार स्वीकार किया कि पिछले साल जब उन्होंने माओवादी निरोधक रणनीति को लेकर गृहमंत्री पी चिदंबरम की आलोचना की थी, तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नाराजगी जताई थी। सिंह ने एक चैनल के कार्यक्रम में कहा कि मेरी बोलती केवल एक बार उस समय बंद हुई थी, जब मैंने चिदंबरम के खिलाफ कुछ टिप्पणी की थी। सोनिया गांधी ने टिप्पणी पर काफी नाराजगी जताई थी और मैंने चिदंबरम से खेद जताया था। सिंह ने चिदंबरम को बौद्धिक दंभी करार देकर विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने कहा था कि माओवाद मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण है। वह इसे शुद्ध रूप से कानून व व्यवस्था समस्या के रूप में देखते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या उनके विवादास्पद बयानों से राहुल गांधी का नाम खराब हो रहा, उन्होंने कहा कि यह पूरी तरह से गलत है। मैं न तो राहुल गांधी का सलाहकार हूं और न ही मेंटर। आतंकवाद का सांप्रदायीकरण करने के आरोपों पर उन्होंने कहा कि वह ऐसा नहीं कर रहे हैं। अगर ऐसा है, तो इसके लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनकी पार्टी को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सिंह ने कहा कि जिन लोगों ने इसका सांप्रदारीकरण किया कि है, वह लालकृष्ण आडवाणी जैसे लोग हैं, जो उस समय प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री के पास गए थे, जब महाराष्ट्र एटीएस ने श्रीकांत पुरोहित, प्रज्ञा ठाकुर, दयानंद पांडेय और अन्य को मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया था। भाजपा प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री के पास गई। क्या वे मुद्दे का सांप्रदायीकरण नहीं कर रहे हैं?

Friday, July 22, 2011

आरोपों से निपटने के लिए रणनीति बनाएगा संघ


देश के मौजूदा राजनीतिक हालात और तमाम नए मुद्दों को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जल्दी ही भाजपा एवं अन्य आनुषंगिक संगठनों के साथ महत्वपूर्ण समीक्षा बैठक करने जा रहा है। इस बैठक में संघ की तरफ से भाजपा को दिए गए एजेंडे की पड़ताल तो होगी ही, साथ ही राजनीतिक मुद्दों पर समन्वय पर भी विचार होगा। संघ के प्रमुख नेताओं के बीच दायित्वों को लेकर भी चर्चा होने की संभावना है। पिछले दिनों असम में हुई संघ की महत्वपूर्ण बैठक में लिए गए निर्णयों को इस बैठक में रखा जाएगा। नितिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद संघ और भाजपा के बीच संबंधों में काफी बदलाव आया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत एवं गडकरी के बीच पहले से ही सहज और प्रगाढ़ रिश्ता होने से भाजपा और संघ के बीच पहले से चली आ रही व्यवस्था ज्यादा प्रभावी नहीं रही है। अभी संघ में सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी संघ की तरफ से राजनीतिक मामलों और भाजपा के साथ समन्वय का काम देखते हैं। सूत्रों के अनुसार अगले साल से नई व्यवस्था एवं दायित्वों में फेरबदल के तहत सोनी को भाजपा के साथ समन्वय के बजाए दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व दिया जा सकता है। अगले माह उज्जैन में होने वाली इस बैठक में संघ भाजपा को दिए गए अपने एजेंडे की भी समीक्षा करेगा। इसमें इसका भी आकलन होगा कि अंत्योदय, आजीवन सहयोगी और अन्य कार्यक्रमों के जरिए भाजपा ने खुद को जमीन पर कितना मजबूत किया है। बैठक में संघ के खिलाफ कांग्रेस और केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे अभियान एवं भगवा आतंकवाद के आरोपों पर भी चर्चा होने की संभावना है।

गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन अस्तित्व में


सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल में क्षेत्रीय प्रशासन की संभावनाओं को अमली जामा पहनाने पर जोर देते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि जरूरत के हिसाब से ऐसे गठन होंगे, लेकिन राज्य किसी कीमत पर नहीं बंटने देंगे। इधर, सौ वर्षो से भी उपर के संघर्ष के बाद सोमवार को गोरखा समुदाय और हिल्स वासियों के चेहरे पर खुशी छलक रही थी। वे सिलीगुड़ी के पिंटल विलेज में गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) यानी गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के गठन के साक्षी जो बन रहे थे। सोमवार को केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोजमुमो नेता विमल गुरुंग आदि की मौजूदगी में राज्य, केंद्र व गोजमुमो के बीच त्रिपक्षीय समझौते के बाद जीटीए अस्तित्व में आ गया। इससे पहले केंद्र सरकार ने गोरखा आंदोलनकारियों के साथ हो रहे त्रिपक्षीय समझौते को मंजूरी दी। सोमवार की सुबह राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीपीए) ने गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया। सीसीपीए ने ही केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम को इस समझौते पर दस्तखस्त के लिए पश्चिम बंगाल जाने को कहा। बैठक के तुरत बाद चिदंबरम सिलीगुड़ी के लिए रवाना हो गए और उनकी मौजूदगी में त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए। अलग गोरखालैंड की मांग के लिए कई प्राणों की आहुति देने वाले गोरखाओं के अस्तित्व को मिले मुकाम का गवाह बना हुआ था पिंटेल विलेज। हस्ताक्षर के दौरान ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि क्षेत्र के विकास के लिए क्षेत्रीय प्रशासन का गठन तो होगा, लेकिन किसी कीमत पर बंगाल को बांटा नहीं जाएगा। चाहे कामतापुर हो या ग्रेटर कूचबिहार, सभी के विकास के लिए सरकार पूरी तरह से कृतसंकल्प है। उन्होंने कहा कि जीटीए का नाम मैंने नहीं दिया है। इसकी रूपरेखा 17 अगस्त 2010 को वाममोर्चे की सरकार ने बनाई थी, लेकिन लागू करने में कोताही बरती। पिछली सरकार को आड़े हाथों लेते हुए ममता ने कहा कि उनका काम विकास नहीं, बल्कि गोरखा, बंगाली और हिन्दी भाषियों को आपस में लड़ाकर उलझाए रखना था। राज्य की मौजूदा सरकार गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन अस्तित्व में समाधान निकाल दिया। पिंटल विलेज में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम और पूरी जनता भी इसका गवाह बनी। ममता ने कहा कि जीटीए का संचालन पूरी तरह से निर्वाचिन प्रक्रिया के तहत होगा और इसका मुख्य मुद्दा होगा पहाड़ व समतल का विकास। आने वाले समय में दार्जिलिंग स्विट्जरलैंड से कम नहीं होगा। अगर पहाड़ बेहतर तभी समतल भी बेहतर होगा, क्योंकि पहाड़ पर पर्यटन के लिए आने वाले लोग सिलीगुड़ी के रास्ते ही दार्जिलिंग जाएंगे। इसलिए दार्जिलिंग और सिलीगुड़ी सगी बहनें हैं और ग्रेटरकूच बिहार बड़ी दीदी हैं। इशारों-इशारों में दीदी सबको नसीहत दे गईं कि विकास होगा, लेकिन विभाजन नहीं। अमरा बंगाली के बंद पर चुटकी लेते हुए कहा कि अमरा बंगाली-अमरा बंगाली तो क्या हम कंगाली हैं? हम सबसे पहले भारतीय हैं। उसके बाद बंगाली, गोरखली और हिन्दी भाषी हैं। ममता ने पहाड़ पर ममता बरसाते हुए कहा कि यहां पूरी तरह से विकास के लिए पैकेज दिया जाएगा। इसमें स्कूल-कॉलेज, विश्र्वविद्यालय, आईटी सेंटर, टी रिसर्च सेंटर, नेपाली भाषा का विकास, हाई फैसेलिटी मेडिकल कालेज, हार्टिकल्चर रिसर्च सेंटर समेत विकास की सारी बातें होंगी। समारोह को संबोधित करते हुए पी चिदंबरम ने कहा कि आज आप, हम और बंगाल की मुख्यमंत्री एक ऐतिहासिक समझौते के गवाह बने हैं। इस क्षेत्र के बारे में मुझे पूरी तरह से पता है। अपने हक के लिए आप कई वर्षो से संघर्ष कर थे, जिसका परिणाम सामने है। इसमें गोजमुमो प्रमुख विमल गुरुंग, रोशन गिरि, दार्जिलिंग के सांसद जसवंत सिंह और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का काफी योगदान रहा है। मैं यहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गंाधी के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद हूं। जीटीए तो एक शुरूआत है। पहाड़ समेत उत्तर बंगाल के विकास के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह सतर्क है और जरूरत पड़ने पर हरसंभव मदद देने के लिए तैयार भी है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि भाषा, संस्कृति और सभ्यता भले ही अलग हो, लेकिन हम सभी पहले भारतीय हैं और पूरा बंगाल भारत का दिल है। चिदंबरम ने कहा कि मैं 18 सौ किमी की यात्रा करके सिर्फ यह देखने आया हूं कि परिवर्तन के इस राज्य में विकास की हवा क्या है। परिवर्तन का मूल उद्देश्य होता है कि आने वाला कल बेहतर होगा। इसलिए मैं घोषणा करता हूं कि गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) आज से प्रभावी होगा। गोजमुमो सुप्रीमो विमल गुरुंग ने कहा कि 34 वर्षो से वाम मोर्चा के शासन में पहाड़ का विकास नहीं, विनाश हुआ है। आज से पहाड़ के विकास की ऐतिहासिक शुरूआत हो रही है। इसके बाद मुझे तराई और डुवार्स को सरकार को देना ही होगा। उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा बनी कमेटी सर्वेक्षण के बाद तराई-डुवार्स को जीटीए में शामिल करने का फैसला खुद ही करेगी। जीटीए पर हस्ताक्षर गोजमुमो के रोशन गिरि, केंद्र सरकार की ओर से केके पाठक और राज्य सरकार की ओर गृह सचिव जीडी गौतम ने किया। पहाड़ पर रंग लाएगी नई व्यवस्था : विमल में रखकर किया गया है। उन्होंने बताया कि प्रदेश सरकार से हर विषय पर बिंदुवार चर्चा हो गई है और वह विकास कार्यो में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं आने देगी। इसके लिए सरकार ने मोर्चा को आश्वस्त किया है। विमल गुरुंग के साथ सभी विधायक, महासचिव रोशन गिरि भी मौजूद रहे।


दार्जिलिंग हिल्स के लिए नई व्यवस्था के कुछ अहम बिंदुकोलकाता : समझौते के मुताबिक दार्जीलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद (डीजीएचसी) का नाम बदलकर गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) कर दिया गया है। नई संस्था का गठन चुनाव के माध्यम से होगा। पर्वतीय क्षेत्र के स्कूल-कॉलेजों में नियुक्ति के लिए अलग चयन आयोग गठित होगा। इसी तरह अलग भविष्य निधि (पीएफ) कार्यालय भी खोला जाएगा। गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के पास चाय बगान की भूमि के लीज के नवीकरण का अधिकार होगा। लेकिन चाय बगान की भूमि पर कर संग्रह करने का अधिकार नहीं होगा। पर्वतीय क्षेत्र के इस स्वायत्त निकाय को केंद्र सरकार आर्थिक पैकेज का एलान किया है। इस धनराशि से विकास कार्य और जीटीए का संचालन होगा। राज्य सरकार की तरफ से भी निकाय को मदद दी जाएगी।

यह सोनिया-राहुल की भाषा है


मुंबई विस्फोटों और आतंकवाद को लेकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बयानों पर पलटवार करते हुए भाजपा ने कहा है कि यह उनकी नहीं, बल्कि सोनिया और राहुल गांधी की भाषा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बम बनाने की फैक्ट्री चलाने और मुंबई की घटना में संघ का हाथ होने की आशंका जताने वाले कांग्रेस महासचिव की कड़ी भ‌र्त्सना करते हुए पार्टी महासचिव रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस नेतृत्व से देश से माफी मांगने को कहा है। उन्होंने इसे भ्रष्टाचार और आतंकवाद के मुद्दे पर फंसी कांग्रेस की एजेंडा बदलने की कोशिश करार दिया। प्रसाद ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खुद ही कहा था कि पार्टी में केवल प्रवक्ता ही बोलेंगे, फिर भी दिग्विजय सिंह लगातार बोल रहे हैं। इससे जाहिर है कि वे सोनिया और राहुल के कहने पर ही बोल रहे हैं। जब भी आतंकवाद और भ्रष्टाचार पर अभियान होते हैं, दिग्विजिय सिंह अपना एजेंडा लेकर आ जाते हैं। पहले राहुल गांधी ने हिंदू आतंकवाद को देश के लिए खतरनाक बताया था, उसके बाद दिग्विजय सिंह उनके झंडे को लेकर घूम रहे हैं। बटला हाउस मामले में वे आजमगढ़ पहुंच गए थे। पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े किए थे और आतंकियों को निर्दोष बताने की कोशिश की थी। ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर उसे ओसामा जी कहा था। इतना ही नहीं, काले धन के खिलाफ अभियान चलाने पर बाबा रामदेव को ठग कहा और भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करने वाले अन्ना हजारे को तो तानाशाह बता डाला था। इसी तरह राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में जेल गए सुरेश कलमाड़ी को तो उन्होंने ही निर्दोष बता दिया। अब दिग्विजय सिंह सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को जानबूझ कर सांप्रदायिक जामा पहनाने में लगे हुए हैं। इससे मुंबई की आतंकी घटना की जांच को प्रभावित और दिग्भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है। संघ राष्ट्रवादी संगठन है और भाजपा को उस पर गर्व है। उस पर आरोप लगाना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने सोनिया गांधी से आग्रह किया कि वे देश की एकता अखंडता को वोट बैंक की राजनीति के लिए दांव पर न लगाएं

Monday, July 18, 2011

गोरामुमो बनाम गजमुमो

पहहाड़ में अलग राज्य को लेकर मांग कई वर्षो से उठ रही थी। लेकिन इसमें 1980 के बाद जान आई। ऐसा नहीं है कि पूर्व आंदोलन नहीं हुए लेकिन गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद हिल्स में हुए आंदोलन आज भी लोगों के जेहन में है। उस समय विमल गुरुंग सुभाष घीसिंग के कैबिनेट के महत्वपूर्ण सदस्य थे। यही वजह थी कि उस समय अस्त्राधारी आंदोलन ने हिल्स में लोगों को एकजुट कर दिया। इस आंदोलन के जो लोग भी साक्षी हैं, वह आज भी अस्त्रधारी आंदोलन के बारे में बताते हैं कि आंदोलन के दौरान समूचा हिल्स गर्म हो गया था और भारी हिंसा हुई थी। इसका नतीजा रहा कि पर्यटक यहां से भाग खड़े हुए और हिल्स की पूरी व्यवस्था चौपट हो गई। इस आंदोलन को आज भी कई लोगों की जान जाने और करोड़ों रुपए की संपति के बर्बादी के रूप में याद किया जाता है। इसके बाद 23 अगस्त 1988 में दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद का गठन हुआ। इसका परिणाम रहा कि सरकारों को गोरामुमो के सामने झुकना पड़ा और अंत में दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद का गठन हुआ। घीसिंग को परिषद में शीर्ष पद पर बैठाया गया। उन्होंने कुर्सी संभालते समय रस्म निभाई और विकास के नारे लगाए। काफी पैसा आया, लेकिन जिस विकास की उम्मीद थी वह नहीं हो पाया। गोरखालैंड का मुद्दा धरा रह गया और लोगों में अलग राज्य की हसरत फिर हिलोरे लेने लगी। समय बीता और फिर गोरखालैंड की मांग ने जोर पकड़ा। इस बीच सात अक्टूबर 2007 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का उदय हुआ और विमल गुरुंग इसके अध्यक्ष बने। एक बार फिर अलग राज्य की मांग हुई और विमल ने लोगों को एकजुट किया। इसी दौरान 25 जुलाई 2008 को गोजमुमो के नारी मोर्चा की कार्यकर्ता प्रमिला शर्मा की हत्या कर दी गई और इसके विरोध में पूरा पहाड़ उबल गया। परिणाम रहा कि बढ़ते दबाव को देखते हुए घीसिंग ने हिल्स को छोड़ना उचित समझा और दूसरे दिन ही पहाड़ छोड़ दिया। इसके बाद भी अलग राज्य का आंदोलन चलता रहा और गोरामुमो प्रमुख व गोजमुमो प्रमुख एक-दूसरे के धुर विरोधी के तौर पर पहचाने जाने लगे। दोनों दल के आपसी खींचतान में कार्यकर्ताओं की भी जान गई और डुवार्स में गोजमुमो कार्यकर्ता अकबर लामा की हत्या वर्ष 2008 में कर दी गई। इसके बाद आठ फरवरी 2011 को सिब्चू गोलीकांड में तीन गोजमुमो कार्यकर्ताओं की मौत हो गई थी और विधानसभा चुनाव के दौरान गोजमुमो कार्यकर्ता रबिन राई की सोनादा में खुकरी से हत्या कर दी गई। गोरखालैंड के आंदोलन कई लोगों की जान चली गई। सही मायने में हिल्स को कई दिनों बाद गोरामुमो व गोजमुमो की लड़ाई से मुक्ति मिली है और विकास के रास्ते खुले हैं।

राहुल की राजनीतिक सक्रियता

तमाम साधनों और सलाहकारों के बावजूद राहुल गांधी के बयानों में बार-बार गड़बड़ी होने पर हैरत जता रहे हैं एस. शंकर
राहुल गांधी स्वत: जब भी कुछ महत्वपूर्ण बोलने की कोशिश करते हैं तो गड़बड़ हो जाती है। प्राय: कांग्रेस के रणनीतिकारों को स्पष्टीकरण देने आना पड़ता है। राहुल को सक्रिय राजनीति में आए 13 वर्ष हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में ये अच्छे लक्षण नहीं कि बार-बार उनके बयान पर सफाई देनी पड़े। एक प्रतिशत आतंकी घटनाओं के न रुक सकने वाला नवीनतम कथन भी वैसा ही साबित हुआ। दो महीने पहले भट्टा-पारसौल में पुलिस की कथित ज्यादती के उनके आरोप बाद में असत्य साबित हुए। इससे पहले राहुल प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को एक जैसा बता चुके हैं। ऐसे बयानों से कांग्रेस को कुछ चुनावी लाभ भले मिले, किंतु देश का हित नहीं हो रहा। शत्रु और मित्र के प्रति ऐसी समदर्शिता से आतंकवाद विरोधी लड़ाई कमजोर ही हुई है। विवादित ढांचा विध्वंस विषय पर भी राहुल ने यह कहकर कांग्रेस को झेंपने को मजबूर कर दिया था कि यदि उनके परिवार का कोई व्यक्ति सत्ता में होता, तो ढांचा नहीं टूटता। यह तो परोक्ष रूप से कांग्रेस और उसके ही प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर अशोभनीय लांछन था। इससे पहले राहुल ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को भी अपने परिवार की देन बताया था। उनके शब्द थे, एक बार मेरा परिवार कुछ तय कर लेता है तो उससे पीछे नहीं हटता। चाहे वह भारत की स्वतंत्रता हो, पाकिस्तान को तोड़ना हो या देश को 21वीं सदी में ले जाना हो। इस एक ही वाक्य में तीन विचित्र कथन थे। भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की हेठी, बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम का अपमान तथा काल-गति पर दावा। यह सब बचकाना ही कहा जा सकता है। जितने साधन, सलाहकार उन्हें उपलब्ध हैं और देश-विदेश देखने का जितना उन्हें अवसर मिला है उससे उनकी बातों में इतना हल्कापन देखकर आश्चर्य होता है। राहुल की राजनीतिक पहलकदमी भी अभी तक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई हैं। 13 वर्ष से भावी प्रधानमंत्री के रूप में राजनीतिक सक्रियता का यह परिणाम निराशाजनक है। क्या इसीलिए वसंत साठे जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी प्रियंका गांधी को लाने की मांग कर रहे हैं? राहुल के अटपटे वचन केवल भाषण देने की रौ में की गई अनचाही भूल नहीं हैं। सितंबर, 2005 में एक साप्ताहिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वह तो 25 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बन सकते थे। केवल पुराने कांग्रेसियों पर दया करके उन्होंने ऐसा नहीं किया। राहुल गांधी के उस प्रथम विस्तृत साक्षात्कार पर जब हलचल मची तो कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उसे साक्षात्कार मानने से ही इंकार कर दिया! सफाई दी कि वह तो अनौपचारिक बातचीत हो रही थी। चिंतनीय बात यह है कि 13 वर्ष के राजनीतिक अनुभव के बाद भी राहुल देश के लिए कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं दे पाए हैं। उनके चाचा संजय और पिता राजीव, दोनों ही अपने-अपने विशिष्ट कार्यक्रमों से जाने गए थे। वे कार्यक्रम कितने सफल हुए, यह दूसरी बात है, जबकि राहुल देश में लंबे समय से मौजूद मुद्दों, तत्वों की पहचान तक करने में गड़बड़ा जाते हैं। जब पूरा देश अन्ना हजारे के बहाने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट कर रहा था, तो राहुल पूरे सीन से ही गायब रहे। वह कोई बयान तक नहीं दे पाए। ऐसी स्थिति में राजनीतिक समस्याओं का समाधान देने की संभावना अनुमान का ही विषय है। यदि बागडोर उनके हाथ आई, तब क्या वही होगा जैसे पुराने जमाने में होता था कि भोले शहजादे के नाम पर अदृश्य तत्व शासन करेंगे। बोफोर्स, क्वात्रोची और संदिग्ध मिशनरियों के मामले में परिवार की भूमिका ने पर्याप्त संकेत दे दिए हैं। परिवार के निकटवर्ती रहे नेता अरुण नेहरू ने भी कहा था कि भारत में अवैध रूप से रह रहे विदेशी मिशनरियों को बाहर करने के निर्णय पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने आपत्ति की थी। एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति वाधवा आयोग ने एक ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी को अवैध मतांतरण कराने में लिप्त पाया था। उस मिशनरी की विधवा को कांग्रेस नेताओं ने बड़ा राष्ट्रीय सम्मान दिया। क्यों? अभी एक नक्सल समर्थक को एक सर्वोच्च आयोग की समिति में नियुक्त किया गया है, जबकि उसके विरुद्ध न्यायालय में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चल रहा है। यह सब कौन लोग कर रहे हैं और इस पर राहुल गांधी क्या सोचते हैं, कुछ सोचते भी हैं या नहीं? इन सब मुद्दों पर आम कांग्रेसियों की भावना निश्चय ही वह नहीं है जो उनके आला कर रहे हैं। अत: यह संदेह निराधार नहीं कि वास्तविक सत्ता अदृश्य लोगों के हाथ में जा रही है। ये बातें असंबद्ध नहीं हैं। देश-विदेश के मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्सा 10, जनपथ का बचाव कर रहा है। वह कभी प्रश्न नहीं उठाता कि कुछ लोग देश की संवैधानिक प्रणाली से हटकर सत्ता का प्रयोग कर रहे हैं। जिस पद या समिति का देश के संविधान में कोई उल्लेख तक नहीं, वह हमारे सर्वोच्च नेताओं को निर्देश देती रहती है। यहां तक कि उनसे हिसाब तक मांगती है। ऐसे सलाहकार रूपी सुपर-शासक किसके प्रति जवाबदेह हैं? अभी सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक ऐसे कानून का प्रस्ताव दिया गया है, जो कानूनी रूप से बहुसंख्यक समाज के मुंह पर ताला लगा देगा। देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक सुपर-अथॉरिटी होगी, जो इस नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर देगी। इस अथॉरिटी के सदस्यों में बहुसंख्या अल्पसंख्यकों की होगी। अर्थात यह नया कानून स्थायी रूप से मानकर चलेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक गड़बड़ी निरपवाद रूप से बहुसंख्यक ही करेंगे। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा भयंकर मजाक आखिर कौन लोग कर रहे हैं? क्या धीरे-धीरे भारत पर एक प्रकार का विजातीय शासन स्थापित हो रहा है? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार