लेखक मंत्रिमंडल और उसके मुखिया की कार्यशैली को संप्रग सरकार के संकट का कारण बता रहे हैं…
केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का संकट गहराता जा रहा है। संकट 2जी घोटाले और उसकी खुलती नई-नई परतों की वजह से उतना नहीं है, जितना मंत्रिमंडल और उसके मुखिया की कार्यशैली के कारण है। क्या एक गैरराजनीतिक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने का प्रयोग विफल हो रहा है? संप्रग-1 के नायक डॉ. मनमोहन सिंह संप्रग-2 के खलनायक जैसे क्यों नजर आने लगे हैं? क्या यह विपक्ष के भ्रामक प्रचार का नतीजा है या मीडिया का इस सरकार से मोहभंग का? क्या कांग्रेस के अंदर ही ऐसे लोग हैं जो इस सरकार और मनमोहन सिंह को कामयाब नहीं होने देना चाहते? क्या मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में कांग्रेस का दबा हुआ अंदरूनी संघर्ष अब खुलकर सामने आने लगा है? क्या प्रधानमंत्री की सरकार पर और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पार्टी पर पकड़ ढीली पड़ती जा रही है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हर कोई जानना चाहता है। सवाल दिन ब दिन बढ़ रहे हैं पर जवाब देने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। 2जी घोटाले की आंच अब पी चिदंबरम तक पहुंच गई है। सीबीआइ और केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि इस मामले में चिदंबरम की भूमिका की जांच करने की कोई जरूरत नहीं है। चिदंबरम के मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि नए तथ्यों की रोशनी में जांच कराने में हर्ज क्या है। नया तथ्य वित्त मंत्रालय का वह नोट है जो प्रधानमंत्री के लिए तैयार किया गया था। इस नोट को तैयार करने में कई मंत्रालय और कैबिनेट सचिव भी शामिल थे। प्रधानमंत्री इस पूरे मामले का तथ्यात्मक ब्यौरा चाहते थे। इस नोट में कहा गया है कि तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कोशिश की होती तो घोटाले को रोका जा सकता था। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि मनमोहन सरकार के दोनों वरिष्ठ मंत्रियों प्रणब मुखर्जी और चिदंबरम आपस में बातचीत भी नहीं करते। इसलिए इस पूरे मामले को दोनों के आपसी झगड़े का नतीजा बताया जा रहा है। दोनों की सोनिया गांधी के दरबार में पेशी हो चुकी है। अब सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात के बाद कोई अंतिम फैसला होगा। दोनों की नजर सुप्रीम कोर्ट के रुख पर है। लेकिन प्रधानमंत्री ने मंगलवार को विदेश से लौटते समय हवाई जहाज में मीडिया से कहा कि सरकार में सब ठीक-ठाक है। उन्होंने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह समय से पहले चुनाव के लिए बेचैन है और राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रहा है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का कहना है कि यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला नहीं है जिसे पार्टी के नेता मिल बैठकर सुलझा लेंगे। यह जनता के पैसे का सवाल है। इस नोट के आधार पर विपक्ष चिदंबरम का इस्तीफा मांग रहा है। सवाल इस बात का नहीं है कि चिदंबरम राजा को रोक सकते थे या नहीं। सवाल इस बात का है कि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य अपनी ही सरकार की बनाई नीति से सहमत हैं या नहीं। स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए पहले आओ पहले पाओ की नीति को लागू करने में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने क्या गड़बड़ की यह एक अलग मामला है। उससे पहले सवाल है कि क्या तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस नीति से सहमत थे या हैं। आजाद भारत की यह पहली सरकार है जिसका मुखिया सहित हर सदस्य यह साबित करने में लगा है कि जो कुछ हुआ उसके लिए कम से कम वह जिम्मेदार नहीं है। सरकार के एक अहम नीतिगत फैसले की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। किसी टीम का कप्तान टीम की जीत हार या उसके प्रदर्शन से अपने को कैसे अलग रख सकता है? ऐसी हालत में कैबिनेट के सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का क्या होगा? अगर सरकार के प्रशासनिक या नीतिगत फैसले की जिम्मेदारी और जवाबदेही से प्रधानमंत्री मुक्त हैं तो सरकार में प्रधानमंत्री की भूमिका क्या है? क्या प्रधानमंत्री को उनकी ही सरकार से अलग करके देखा जा सकता है? प्रधानमंत्री और उनके वरिष्ठ सहयोगी अपने इस व्यवहार से एक स्पष्ट संदेश दे रहे हैं कि इस नीतिगत फैसले में कुछ गड़बड़ जरूर है। मनमोहन सिंह सरकार के हर गलत फैसले से अपने को अलग दिखाने में सबसे आगे नजर आते हैं। ऐसे में दूसरे मंत्री भी ऐसा ही करें तो क्या गलत है। चिदंबरम अगर आज संकट में हैं तो उसके लिए प्रणब मुखर्जी से उनकी प्रतिस्पर्धा या प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा जिम्मेदार नहीं है। चिदंबरम इसलिए संकट में हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। जब ए राजा स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति तय कर रहे थे तो प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे। उन्हें देश को बताना पड़ेगा कि वह अपनी ही सरकार की इस नीति से सहमत थे या नहीं। यदि सहमत थे तो उसके बचाव में खड़े क्यों नहीं हो रहे। और यदि उन्हें इस नीति में खामी नजर आ रही थी तो उसे सुधारने के लिए उन्होंने क्या किया। प्रधानमंत्री चिदंबरम का बचाव तो कर रहे हैं पर अपनी सरकार की नीति का नहीं। उन्हें पता है कि चिदंबरम के जाते ही उनका रक्षा कवच ध्वस्त हो जाएगा। चिदंबरम के जाने के बाद प्रधानमंत्री को विपक्ष के हमलों से बचाना कठिन हो जाएगा। सोनिया गांधी के सामने यही कठिनाई है। मनमोहन सिंह को बचाने के लिए चिदंबरम को बचाना उनकी मजबूरी है। कांग्रेस और सोनिया गांधी की मुश्किल यह है कि पैराशूट होने के बावजूद सरकार लगातार गिरती जा रही है। पैराशूट खुले (राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद संभालने को तैयार हों) तभी सरकार सुरक्षित जमीन पर उतर सकती है। वरना सरकार का नीचे जाना तो तय है। सवाल केवल रफ्तार और समय का है। घोटालों का बोझ जितना बढ़ेगा गिरने की रफ्तार उतनी तेज होगी। विपक्ष और मीडिया को कोसने की बजाय प्रधानमंत्री और सोनिया को अपना घर दुरुस्त करने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि मीडिया और विपक्ष जो कह रहा है देश की जनता उस पर अविश्वास नहीं कर रही। संकट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दरवाजे पर आ गया है। घर में आग लगी हो तो पड़ोसी की निंदा में समय गंवाना समझदारी नहीं मानी जाती। विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करके प्रधानमंत्री इस आग पर काबू नहीं पा सकते। इस समय विपक्ष पर हमला आग पर पानी की बजाय पेट्रोल का काम करेगा जो उनकी सरकार ने पहले ही काफी महंगा कर रखा है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
No comments:
Post a Comment