जीवंत लोकतांत्रिक चुनाव सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लोकाचार से प्रभावित होता है। अपने देश में शुरुआती चुनावों में राजनीतिक स्वाधीनता के संघर्ष के प्रभाव में चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर होता था। सोशल इंजीनियरिंग जो अभी तक जारी है, बाद के दिनों में हावी हुई। आखिर में आर्थिक विकास का मुद्दा राष्ट्रीयता की भावना और सोशल इंजीनियरिंग पर भारी पड़ा। दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और हाल ही में बिहार में सत्ता विरोधी रुझानों को धता बताते हुए सत्तारूढ़ दलों की चुनावों में विजय से इस बात की पुष्टि होती है। अब मतदान केंद्र में जाकर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन का बटन दबाने वाले आम आदमी के लिए आर्थिक विपन्नता और असमानता पहले से कहीं अधिक मायने रखने लगी है। वह उस उम्मीदवार या पार्टी का चुनाव करता है जो उसके आर्थिक जीवन को बेहतर बना सकती है। कुछ अन्य राज्यों के साथ-साथ 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। एक बार फिर मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करंेगे। वे क्या चुनते हैं, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इसकी प्रबल संभावना है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षो के दौरान विकास या विकासहीनता का मुद्दा आत्मघोषित सामाजिक इंजीनियरिंग के मुद्दे पर भारी पड़ेगा। उत्तर प्रदेश की जीडीपी वृद्धि दर पर गौर करें तो पता चलता है कि यह राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश पिछले दस वर्षो के दौरान किसी भी वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर के मामले में शीर्ष तीन राज्यों की सूची में शामिल नहीं रहा है। भारत और उत्तर प्रदेश की जीडीपी वृद्धि दर में दो से तीन प्रतिशत का अंतर पिछले पांच वर्षो में देखने को मिल रहा है। अगर इसमें नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद का अंशदान घटा दें तो यह अंतर और भी अधिक हो जाएगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के तहत आने वाले इन इलाकों के विकास का अधिक लाभ उत्तर प्रदेश के निवासियों के बजाय दिल्लीवासियों को मिला है। उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति जीडीपी का औसत पांच प्रतिशत से भी कम है, जबकि भारत का औसत करीब 7.5 फीसदी है। इससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के लोगों की आर्थिक स्थिति अन्य राज्यों के निवासियों के मुकाबले खराब है। वास्तव में, उत्तर प्रदेश की विकास दर भारत की विकास दर की तुलना में गिर रही है। आर्थिक विकास को बहुत से पहलू प्रभावित करते हैं। हालांकि इनमें से चार पहलू ऐसे हैं जिनका प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। ये हैं-मानव पूंजी की गुणवत्ता, निजी निवेश की मात्रा, ढांचागत सुविधाओं की गुणवत्ता व विस्तार तथा सामाजिक व्यवस्था। राजनीतिक स्वतंत्रता के समय और उसके दो दशक बाद तक उत्तर प्रदेश में अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठित शैक्षिक, तकनीकी और प्रोफेशनल संस्थान थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, आइआइटी कानपुर, किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज लखनऊ ऐसे ही कुछ नाम हैं, जिनकी चमक देश के अन्य संस्थानों से कहीं अधिक थी। पूरे देश से छात्र उत्तर प्रदेश में पढ़ने के लिए आते थे। आज आर्थिक रूप से समर्थ राज्य से बाहर के लोग आइआइटी कानपुर को छोड़कर उत्तर प्रदेश के किसी शिक्षण संस्थान में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना पसंद नहीं करते। यही नहीं, उत्तर प्रदेश काम करने के लिहाज से भी सबसे घटिया राज्यों में शामिल है। उत्तर प्रदेश में निवेश की दर भी तेजी से गिर रही है। एक समय भारत के पांच शीर्ष औद्योगिक शहरों में शामिल कानपुर आज एक मृत शहर सा नजर आता है। आगरा, इलाहाबाद, लखनऊ और वाराणसी जैसे सुप्रसिद्ध शहरों में बहुत कम आधुनिक औद्योगिक और व्यावसायिक इकाइयां लग रही हैं। निवेश के निचले स्तर के कारणों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। उत्तर प्रदेश में ढांचागत सुविधाओं, चाहे वे भौतिक हों या सामाजिक, की दशा दयनीय है। सड़कें गड्ढों से भरी हैं, ट्रेनें जगह-जगह रुक-रुक कर चलती हैं और हवाई अड्डे बहुत कम और बदतर हैं। स्वास्थ्य, स्वच्छता सुविधाएं और पानी की आपूर्ति बदहाल है और नागरिक जीवन की गुणवत्ता अफ्रीका के पिछड़े हुए देशों से भी गई-बीती है। प्रशासन का आकार तो विशाल है, किंतु इसमें सक्षमता नहीं है। यह अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। पारिस्थितिक तंत्र हितकारी नहीं है। सुधार की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देतीं। यहां योजनाओं की घोषणाओं पर जोर है, न कि उनके क्रियान्वयन पर। सामाजिक व्यवस्था, जिसके दायरे में जान-माल व स्वतंत्रता की सुरक्षा, नागरिकों में आपसी सौहार्द्र, आर्थिक अवसरों की संभावना और बिना परेशानी के कामकाज की सुविधा शामिल हैं, भी निराश-हताश करती है। यहां तक कि बिहार, जहां कभी जंगल राज बताया जाता था, बहुत तेजी से तरक्की की सीढि़यां चढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक व राजनीतिक हालात लगातार बिगड़ रहे हैं। अक्सर यहां काम देरी से होता है या फिर होता ही नहीं। काम में न केवल देरी होती है, बल्कि वे होते भी नहीं हैं। विडंबना यह है कि इसके बारे में कहीं कोई चिंता नहीं दिखाई देती। लोगों को सुविधाओं से वंचित करने के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन भी सुनाई नहीं देते। कुल मिलाकर यहां के समाज में मायूसी और विषाद घर कर चुका है। गरीबी में जीवनयापन कर रहे लोगों का असंतोष और विरोध समझ में आता है। इसकी प्रतिक्रिया होनी ही है। एक खामोश क्रांति वातावरण में फैल सकती है। विधायिका और राजनीतिक कार्यपालिका में जगह बनाने के दावेदार लोग यदि आर्थिक खुशहाली को अपना घोषणापत्र बनाएं तो वे अपना भला कर सकते हैं। खोखले वायदे अब काम नहीं आने वाले। वितरण प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के ढांचे को मजबूत बनाने के तौर-तरीके भी एजेंडे में शामिल होने चाहिए। राजनीतिक दल अपने चुनावी कौशल और नारेबाजी की राजनीति के साथ-साथ सामाजिक समीकरणों के सहारे सफल होने की कोशिश करेंगे। इसके बजाय उन्हें जमीन पर कान लगाकर फुसफुसाहट सुननी चाहिए, जमीनी सच्चाई का सामना करना चाहिए और उन्हें मुद्दों का रूप देकर अपने समाधान के साथ मतदाताओं के पास जाना चाहिए। जो लोग सकारात्मक सोच के साथ ऐसा करेंगे उनके जीतने की संभावना अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक होगी। समय तेजी से भाग रहा है। उम्मीदवारों को तेजी से कार्य करना चाहिए और उस राह पर अपने कदम बढ़ाने चाहिए जहां से अभी तक कम लोग गुजरे हैं। (लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व अध्यक्ष हैं
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