Saturday, November 12, 2011

विकास के लिए जरूरी


उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में सत्ता बचाने और पाने के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ शुरू हो चुकी है। इसी के तहत राज्य को चार हिस्सों में बांटने की सियासत अब उफान मार रही है। यह संभावना है कि मुख्यमंत्री मायावती विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर उत्तर प्रदेश को पूर्वी, मध्य, पश्चिम और बुंदेलखंड में बांटने का प्रस्ताव ला सकती हैं। इस दांव की काट के लिए कांग्रेस भी प्रदेश के बंटवारे की पैरवी कर मायावती को विधानसभा में प्रस्ताव लाने की चुनौती दे दी है। देखा जाए तो उत्तराखंड के अलग होने के बाद भी उत्तर प्रदेश एक बहुत बड़ा राज्य है। इसलिए इसके विभाजन की बात पहले भी कई बार उठी है। इस मामले में सबसे मुखर राष्ट्रीय लोकदल है, क्योंकि यही उसके जनाधार का प्रमुख कारण है। लेकिन तेलंगाना जैसा कोई जनांदोलन न होने पर भी उत्तर प्रदेश के विभाजन का मुद्दा उछाला जा रहा है तो इसका कारण कांग्रेस की यह सोच है कि वह उत्तर प्रदेश में तभी राजनीतिक मजबूती पाएगी, जब राज्य को कई हिस्सों में विभाजित कर दिया जाए। देखा जाए तो 1956 में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन कर 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों के गठन के बाद भी नए राज्यों की मांग कभी थमी नहीं। वर्ष 1960 में मुंबई प्रांत को विभाजित कर गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ। वर्ष 1962 में नगालैंड बना तो 1966 में पंजाब को विभाजित कर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्यों का गठन किया गया। वर्ष 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा का निर्माण हुआ। 1987 में मिजोरम और अरुणाचल का उदय हुआ। वर्ष 2000 में राजग सरकार ने पिछड़ेपन के आधार पर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड राज्य का गठन किया। इसके बावजूद नए राज्यों के गठन की मांग करने और फिर उसके लिए संघर्ष करने का सिलसिला निरंतर कायम रहा है। इस समय आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य के गठन की मांग सबसे उग्र है, लेकिन इसके साथ ही बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, असम में बोडोलैंड, कर्नाटक में कुर्ग, बिहार में मिथिलांचल, गुजरात में सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड, पूर्वाचल और हरित प्रदेश को राज्य के तौर पर गठित करने की मांग जब-तब जोर पकड़ती रहती है। नए राज्यों की मांग का सरलीकरण करना आसान नहीं है। आमतौर पर ये सभी मांगें क्षेत्र के विकास को मुद्दा बनाते हुए अलग राज्य के निर्माण के लिए जोर दे रही हैं, लेकिन गहराई से देखा जाए तो विकास के बहाने दबंग जातियां और वर्ग अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। जैसे हरित प्रदेश की मांग के पीछे जाट जाति का प्रभुत्व है। भले ही नए राज्यों के पीछे राजनेताओं के छुद्र स्वार्थ हों, लेकिन यदि इस विषय को समग्रता में देखा जाए तो छोटे राज्यों का गठन किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है। क्या छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखंड आदि विफल राज्य कहे जा सकते हैं? नए राज्यों में यदि कहीं भ्रष्टाचार या नक्सलवाद है तो ये समस्याएं कई पुराने राज्यों में भी हैं। देखा जाए तो आज भी देश में कई राज्य इतने बड़े हैं कि दुनिया के 80-90 देश उनसे छोटे हैं। ऐसे में जनता को शासन-प्रशासन के नजदीक लाने के उपाय हैं छोटे राज्य। यदि मतदाताओं की संख्या कम होगी तो विधायकों और सांसदों का प्रतिनिधित्व भी अधिक घनिष्ट होगा। राज्यों की संख्या बढ़ने पर शक्ति का विकेंद्रीकरण भी बढ़ेगा। छोटे राज्यों के नेता अपने राज्यों के आर्थिक विकास पर ज्यादा ध्यान दे सकेंगे। नए संवैधानिक संशोधन के कारण मंत्रिमंडल भी छोटे ही होंगे। ज्यादा राज्यों के निर्माण से केंद्र के कमजोर होने का तर्क भी ठोस नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका में शुरू में 13 राज्य थे, जो आज 50 हो गए हैं। क्या इससे अमेरिका कमजोर हो गया? व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो बड़े राज्य न प्रशासनिक दक्षता की दृष्टि से उपयुक्त होते हैं और न ही प्रशासन तक जनता की पहुंच की दृष्टि से। फिर अधिकतर छोटे राज्यों का विकास अपेक्षाकृत तेजी से हुआ है। उदाहरण के लिए हरियाणा, पंजाब, मिजोरम, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड जैसे राज्यों ने अपने गठन के बाद तेजी से विकास किया है। छत्तीसगढ़ ने तो नक्सलवाद की गिरफ्त में रहने के बावजूद तेजी से प्रगति की है। दरअसल, नए राज्यों को लेकर समस्या तब खड़ी होती है, जब बिना किसी ठोस आधार के केवल राजनीतिक कारणों से राज्य की मांग उठाई जाती है। ऐसे में छोटे राज्यों की मांग को सियासी स्वार्थ के चश्मे से नहीं, क्षेत्रीय विकास, प्रशासनिक सुविधा, विकेंद्रीकरण, सांस्कृतिक चेतना आदि के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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