Monday, October 8, 2012

सुरक्षा के नाम पर बेजा तंत्र





 सुभाष गाताडे 9/11 की 11वींबरसी के चंद दिनों बाद ही सामने आई अमेरिकी सीनेट की रिपोर्ट पर ज्यादा बात नहीं हो सकी है। इस रिपोर्ट में अमेरिकी सरकार ने आतंकवाद की सूचनाएं जुटाने के लिए बनाए महाकाय ढांचे की समीक्षा की गई है। इसमें कहा गया है कि जनता के टैक्स से मिले सैकड़ों अरब डॉलर की लागत लगी से बना यह ढांचा सफेद हाथी साबित हुआ है, जिसने बहुत कम जरूरी सामग्री जुटाई है, जबकि उसने निरपराध अमेरिकियों के जीवन के बारे में जानकारियों को अनुचित ढंग से इकट्ठा किया है। जाहिर है, सुरक्षा प्रयासों को लेकर गृह मंत्रालय ने जिस ढांचे को हार का मोती घोषित किया था, उसकी ऐसी भ‌र्त्सना पहले कभी नहीं हुई थी। दरअसल, जिस सिलसिले की शुरुआत स्थानीय, राज्य स्तरीय और केंद्रीय स्तर पर संचालित गुप्तचर योजनाओं के सम्मिलन से शुरू हुई थी, आज वह ऐसे महाकाय ढांचे में बदल गया है, जहां क्या हो रहा है किसी को नहीं पता। इसके पीछे मकसद यही बताया गया था कि उसमें सभी एक ही किस्म की सूचनाओं का विश्लेषण किया जाएगा। रिपोर्ट कहती है कि हमारी जांच में हमें ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिली जो उजागर करे कि इस ढांचे के चलते आतंकवाद के खतरे को उजागर किया जा सका या आतंकी साजिश को समय रहते ही नाकाम किया जा सका। सीनेट की प्रस्तुत रिपोर्ट 9/11 के बाद की एक कड़वी हकीकत बयां करती है। राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यक्रम फैलते जाते हैं, संकुचित नहीं होते, जबकि उनके लिए प्रयुक्त पैसा और मानवशक्ति आतंकवाद के वास्तविक मुद्दे से कई गुना ज्यादा होती है। एक मुस्लिम समूह की ओर से अपने सदस्यों में वितरित किताबों की सूची या अमेरिकी नागरिकों का मस्जिद में वक्तव्य या बच्चों के लालन-पालन में मुस्लिमों को दी गई सलाह जैसी सूचनाओं का अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्ति की सुरक्षा के साथ क्या संबंध हो सकता है? ऊपरी तौर पर देखें तो कुछ भी नहीं। मगर आतंकवाद संबंधी सूचनाएं जुटाने के अमेरिकी विशाल ढांचे को देखें तो उनमें तमाम ऐसी सूचनाएं अतिगोपनीय श्रेणी में मिल जाएंगी। यह कोई पहली बार नहीं है जब आतंकवाद पर नकेल कसने के नाम पर खड़े किए गए विशाल ढांचे की विसंगतियां सामने आई हैं। सबसे मजेदार किस्सा जिम रॉबिन्सन नाम के शख्स का है, जो बुश के राष्ट्रपति रहते सामने आया था। रॉबिन्सन बिल क्लिंटन के कार्यकाल में न्याय विभाग की अपराध शाखा के पूर्व प्रमुख रह चुके हैं। उन दिनों बुश प्रशासन की अपनी टेररिस्ट वॉच लिस्ट में उन्हें आतंकवादी की श्रेणी में डाल दिया गया था। यह अलग बात थी कि उसी सरकार ने उन्हें सिक्योरिटी क्लीयरेन्स दिया था यानी अगर वह देश-विदेश की यात्रा करते हैं तो उन्हें रुटीन जांच से छूट मिलती है, जिसका अर्थ है कि बुश प्रशासन का दूसरा महकमा उन्हें विशिष्ट नागरिक मानता रहा। यह अकारण नहीं कि अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने उन दिनों प्रेस कॉन्फे्रंस कर रॉबिन्सन को मीडिया के सामने प्रस्तुत किया था। इसका मकसद यह रेखांकित करना था कि जबसे जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा की है, तबसे अमेरिकी हुकूमत की निगाह में कैसे आतंकवादी कहे जा सकने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। यह आंकड़ा उन दिनों चार लाख लोगों से संबंधित एक करोड़ से अधिक सूचनाओं को पार कर गया था। एक तरफ अमेरिकी हुकूमत इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपाती रहती है कि आतंकवाद के खिलाफ इस युद्ध में उसे कामयाबी मिल रही है और दूसरी तरफ आंकड़े अलग सच्चाई बयां कर रहे होते हैं। 9/11 के पहले संघीय सरकार के पास महज 16 ऐसे लोगों की सूची थी जिनकी विमान यात्राओं को खतरा समझा जाता था, ऐसे आंकड़ों का 4 लाख से अधिक हो जाना निश्चित ही चिंताजनक है। यह समझने की जरूरत है कि दुनिया पर अपनी चौधराहट कायम रखने के लिए व्याकुल अमेरिकी साम्राज्यवाद की पोटली में आतंकवाद एक ऐसा शिगूफा है, जिसका उसने जानबूझ कर हौवा बना रखा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद कम्युनिजम का हौवा भी वह दुनिया को दिखा पाने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की बात करते हुए वह न केवल अपने लोगों के नागरिक अधिकारों पर अंकुश कायम रख सकता है, बल्कि अफगानिस्तान, इराक जैसे मुल्कों पर हमला कर उन्हें नियंत्रण में रखने की कोशिश भी कर सकता है। यह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका अपनी नीतियों और आतंकी गतिविधियों के बीच के अंतर्र्सबंधों से परिचित नहीं है। अपने एक महत्वपूर्ण आलेख अवर वॉर ऑन टेररिजम में अमेरिकी विद्वान हावर्ड झिन स्वीकार ने किया था कि जब तक 100 से ज्यादा देशों में फौजें तैनात करने, फलस्तीन पर कब्जे को जायज ठहराने या मध्यपूर्व के तेल पर नियंत्रण करने के नापाक इरादों का अमेरिका परित्याग नहीं करता, तब तक अमेरिकी नागरिक हमेशा ही डर में जीने के लिए मजबूर होगा। अगर हम घोषणा करें कि हम इन नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहते हैं और उनको बदलना चाहते हैं तो मुमकिन है कि हमारे खिलाफ विद्वेष का जो भंडार संचित हुआ है, जिससे आतंकवादियों को खाद-पानी मिलता है, वह सूख जाए। विडंबना यही है कि एक बार आपका इस सूची में नाम दर्ज हुआ तो आपके लिए इसे चुनौती देना भी संभव नहीं होता, सूची से नाम हटाना तो दूर की बात होती है। कई भारतीय, जिन्हें हम सेलिब्रेटी का दर्जा देते हैं, वे भी अमेरिकी सरकार के इस अडि़यल रवैये का शिकार हुए हैं, जिन्हें कहीं रोका गया है या विमान से उतारा गया है। अमेरिकी प्रशासन किस तरह बददिमागी से काम करता है, इसका सबूत पिछले दिनों ही मिला था, जब दुनिया के सामने यह खुलासा हुआ कि विश्व जनमानस के लाडले मंडेला और दक्षिण अफ्रीका में 15 सालों से सत्तासीन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस अभी हाल तक अमेरिका की आतंकवादी सूची में शामिल थे। दुनियाभर के विश्लेषकों ने व्यंग्य के लहजे में कहा कि मंडेला के 90वें जन्मदिन के लिए इस सूची से उनका नाम निकाल दिया जाना अमेरिकी प्रशासन का उन्हें तोहफा है। इसी दौरान यह भी पता चला कि 2002 से 2006 तक अमेरिका में दक्षिण अफ्रीकी हुकूमत की राजदूत रहीं बार्बरा मासेकला ने जब 2007 में अपने बीमार भाई से मिलने जाने के लिए वीजा के लिए अमेरिकी सरकार के पास अर्जी लगाई दी तो उन्हें वीजा दिलाने में इतनी देर कर दी गई कि उनके भाई का देहांत हो चुका था। अब चंद हफ्तों पहले ही अमेरिकी सरकार ने नेपाल के प्रचंड-भट्टराई गुट के नेतृत्ववाले माओवादी धड़े को आतंकी सूची से हटाने का निर्णय लिया है। सभी जानते हैं कि उन्हें अपना भूमिगत जीवन छोड़कर खुले में खुली राजनीति करते छह साल से अधिक समय बीत गया है और इस दौरान उनकी पार्टी सत्ता में भी रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 8-10-2012  Rajnitee , Pej -9

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