Wednesday, October 24, 2012

गडकरी की विदाई का समय




गडकरी की विदाई का समय भारतीय जनता पार्टी के लिए कठिन परीक्षा का दौर है। सबसे अलग होने का दावा करने वाली पार्टी के लिए फैसले की घड़ी आ गई है। उसे तय करना है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग है। उसे यह भी बताना है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों में मिलीभगत के आरोप सही नहीं हैं। यह भी कि भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे पर उसने संसद का मानसून सत्र नहीं चलने दिया उस पर उसका अपना दामन पाक साफ है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के व्यापारिक कार्यकलाप पर सवाल उठ रहे हैं। सवाल गंभीर हैं। इन्हें राजनीति से प्रेरित बताकर टाला नहीं जा सकता। सवाल तो पार्टी के अंदर से भी उठने लगे हैं। अब यह भाजपा को तय करना है कि उसे अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को बचाने की कोशिश करना है या पार्टी की साख बचानी है। वर्तमान परिस्थिति में दोनों नहीं बच सकते। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना हुआ है। लोगों के मन में फिर उम्मीद जगी है कि इस बुराई से लड़ा जा सकता है। यही नहीं रसूख वालों के भ्रष्टाचार को बेपर्दा किया जा सकता है। कानून को उनकी गर्दन तक पहुंचने में देर लग सकती है पर पहुंचेगा जरूर। लोगों में नई उम्मीद जगाने का श्रेय नागर समाज के लोगों को जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान जितना जोर पकड़ता जा रहा है, सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचारियों के बचाव में उतनी ही ज्यादा ताकत लगा रही है। कहते हैं कि एक हद के बाद बहादुरी और बेवकूफी की विभाजन रेखा बहुत महीन हो जाती है। कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। मामला अदालत में गया। अदालत ने आरोप तय कर दिए। प्रधानमंत्री को अपने मंत्रिमंडल के इस सहयोगी को मंत्रिमंडल से बाहर करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी ने उस नेता को चुनावी राज्य का प्रभार सौंप दिया। जी हां बात हिमाचल प्रदेश के वीरभद्र सिंह की हो रही है। अब आप ही तय करें कि यह कांग्रेस की बहादुरी है या बेवकूफी। वीरभद्र सिंह के भ्रष्टाचार का नया मामला सामने आया है। कांग्रेस के सामने समस्या है कि वह राबर्ट वाड्रा को बचाए, सलमान खर्शीद को या वीरभद्र सिंह को। इसलिए वह सबको बचा रही है। अभी कोयला घोटाले की तलवार उसके सिर पर लटक ही रही है। कांग्रेस ने या तो मान लिया है कि घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से उसका जितना नुकसान होना था, हो चुका है अब नए घोटालों के सामने आने से भी उसका इससे ज्यादा नुकसान नहीं हो सकता। या फिर वह मानती है कि लोगों की याददाश्त कमजोर होती है। देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे तो यह कह ही चुके हैं कि जिस तरह लोग बोफोर्स को भूल गए इसे भी भूल जाएंगे। कांग्रेस ने अपने को किले में बंद कर लिया है। उसे अपने सरदार को बचाना है। सवाल है कि कब तक? भ्रष्टाचार का मुद्दा अब पलटकर भाजपा के गले की हड्डी बन गया है। गडकरी द्वारा अपने दोस्त और व्यवसायी अजय संचेती को राज्यसभा में भेजने और अंशुमान मिश्रा के टिकट के मुद्दे पर हुए विवाद के बाद भी पार्टी और संघ नहीं चेते। गडकरी को अध्यक्ष बनाते समय संघ और खासतौर से संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो भूमिका निभाई उसकी आंच अब उनके दामन तक भी आएगी। संघ प्रमुख ने गडकरी के साथ अपनी प्रतिष्ठा जोड़ दी। गडकरी इसलिए अध्यक्ष नहीं बने कि वे पार्टी के सर्वमान्य नेता थे या सबसे ज्यादा जनाधार वाले नेता थे। गडकरी अपने गृह राज्य महाराष्ट्र में भी भाजपा के घटते जनाधार को रोक नहीं पाए। उनकी सबसे बड़ी ताकत थी संघ का समर्थन। सवाल है कि क्या संघ का यह समर्थन अब भी जारी रहेगा। सार्वजनिक जीवन लोकलाज और लोक मर्यादा से चलता है। गडकरी के खिलाफ लगे आरोपों की सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी। पर सवाल है कि क्या पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर लोकसभा चुनाव में उतरने का जोखिम उठाएगी? बंगारू लक्ष्मण के बाद नितिन गडकरी भाजपा के दूसरे अध्यक्ष हैं, जिन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा है। दोनों स्वंयसेवक रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी सोचना चाहिए कि अब उसके यहां से नानाजी देखमुख, कुशाभाऊ ठाकरे और सुंदर सिंह भंडारी जैसे स्वंयसेवक राजनीति में क्यों नहीं आते। बंगारू लक्ष्मण और नितिन गडकरी जैसे लोगों पर संघ कैसे भरोसा कर लेता है? उसे क्यों पता नहीं चलता कि उसका स्वयंसेवक रास्ता भटक गया है। उसे हर बार चौंकना क्यों पड़ता है? उसे चार्टर्ड प्लेन से चलते हुए भाजपा नेता क्यों नहीं दिखते। किनके निजी विमानों पर चलते हैं ये नेता? उद्योगपतियों के निजी विमामों को टैक्सी की तरह इस्तेमाल करने वालों से संघ और भाजपा कैसे उम्मीद करते हैं कि समय आने पर वे इन्हीं उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए अपने पद का दुरुपयोग नहीं करेंगे। विजयदशमी पर सरसंघचालक मोहन भागवत ने गडकरी के मुद्दे पर कहा कि यह भाजपा का अंदरूनी मामला है। इसके अलावा उन्होंने और एक बात कही कि भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्या यह बात नितिन गडकरी पर भी लागू होगी? भाजपा की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक निर्णायक दौर में है। नागर समाज ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में जो माहौल बनाया है, मुख्य विपक्षी दल के नाते उसका राजनीतिक फायदा भाजपा उठा सकती है, लेकिन गडकरी की लंगड़ी तलवार से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। भाजपा अध्यक्ष पर लगे आरोपों ने पार्टी को संकट में डाल दिया है। भाजपा चाहे तो इस संकट को अवसर में बदल सकती है। अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ कार्रवाई करके अपनी पार्टी के नेताओं के साथ ही मतदाताओं को भी संदेश दे सकती है कि उसकी नीयत और नीति साफ है। इसके लिए पार्टी अपने अध्यक्ष की भी कुर्बानी दे सकती है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


Dainik Jagran National Edition 25-10-2012 राजनीति pej-8

Thursday, October 18, 2012

धृतराष्ट्र बनी राजनीति





शिव कुमार राय बात जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट में हुए घोटाले या उसके कर्ताधर्ता सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद की नहीं। बात डीएलएफ और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉर्बट वाड्रा के बीच हुए जमीनी और तमाम कारोबारी सौदे में हुई अनियमितता की भी नहीं। बात कॉमनवेल्थ घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला और नागरिक उड्डयन मंत्रालय जैसे तमाम दूसरे घोटालों की भी नहीं। बात राजनीति में अपने फायदे के लिए धृतराष्ट्र बने उन लोगों की है, जिनका देश के आम आदमी की तकलीफों से कोई सरोकार नहीं है। राजनीति के ये धृतराष्ट्र वे लोग हैं, जो भ्रष्टाचार पर ठोस कार्रवाई करने के बजाय यह बयान देते हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर बिना सोचे-समझे नकारात्मक और निराशाजनक माहौल बनाने से किसी का भला नहीं होने वाला। ऐसे लोगों का यह कहना है कि इस तरह के दुष्प्रचार से दुनिया में भारत की छवि खराब हो रही है। राजनीति के ऐसे ही एक धृतराष्ट्र का यह मानना है कि देश के एक केंद्रीय मंत्री के लिए 71 लाख रुपये की रकम मामूली होती है और इसलिए इतनी रकम से जुड़ी किसी अनियमितता को घोटाला नहीं कहा जा सकता। यही नहीं, उनका यह भी कहना था कि अगर रकम 71 करोड़ रुपये होती तो इसको लेकर वह जरूर गंभीर होते। डीएलएफ और रॉबर्ट वाड्रा की डील को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल के आरोपों के बाद समूची कांग्रेस जिस तरह से बचाव में उतरी, उसे देखकर यह लगा मानो देश में कोई बहुत बड़ी आपदा आ गई हो। करतूतों पर परदा आरोप कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद पर था तो राजनीति के एक धृतराष्ट्र ने एक समाचार चैनल पर यह बयान दे डाला कि हमने आज तक अटल बिहारी वाजपेयी के बेटे के बारे में कुछ नहीं कहा। हमने लालकृष्ण आडवाणी के बेटे-बेटी के बारे में भी कुछ नहीं कहा। हरियाणा में रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ से जुड़े जमीन विवाद की जांच करने वाले और वाड्रा के मानेसर प्लांट का म्यूटेशन रद करने वाले आइएएस अधिकारी अशोक खेमका का तबादला बीज विकास निगम में कर दिया जाता है। आखिर कब तक राजनीति के ये धृतराष्ट्र अपनी खामियों पर परदा डालने की कोशिश करते रहेंगे और आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज करेंगे? देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट पर उत्तर प्रदेश में विकलांगों की सहायता के लिए लगाए गए कैंप से संबंधित तमाम सरकारी कागजात और मौजूदा दस्तावेज यह बताने के लिए काफी हैं कि दाल में कुछ काला है और अब निष्पक्ष जांच के जरिये यह जानने की जरूरत है कि कहीं पूरी दाल ही तो काली नहीं है। बात सिर्फ जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट की ही नहीं, देश में विकलांगों की सहायता के नाम पर सरकारी खजाने से हर साल बड़ी रकम निकलती है, लेकिन समाज के इन बेबस लोगों के हालात में कोई खास तब्दीली दिखाई नहीं देती। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए ऐसी कई योजनाएं सिर्फ कागजों पर चल रही हैं और इनके नाम पर धंधा करने वाले तमाम ट्रस्ट, एनजीओ और तथाकथित समाज सेवक अपनी तिजोरियां भरने में जुटे हैं। देश के कई सरकारी और गैर सरकारी संगठन तमाम योजनाओं को अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखाते हैं और हितग्राहियों (किसी योजना विशेष से लाभ पाए हुए लोग) की सूची जारी कर देते हैं। इन हितग्राहियों की सूची में दर्ज नाम और पते की अगर दोबारा जांच कराई जाए तो इनमें से ज्यादातर लोगों के नाम और पते फर्जी ही निकलेंगे। देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के ट्रस्ट को लेकर जिन बातों का खुलासा हुआ है, उसमें बेहतर होता कि सरकार इसकी निष्पक्ष जांच की घोषणा करती, लेकिन ऐसा कुछ होने के बजाय पूरी कांग्रेस पार्टी और सरकार अपने नेता के बचाव में ही उतर गई। सलमान खुर्शीद की पत्नी लुईस खुर्शीद को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फर्रुखाबाद सीट से जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा था और वह पांचवें स्थान पर थीं। कोई भी राजनेता केवल कोरी बातों और वादों से आम जनता का भरोसा हासिल नहीं कर सकता, लेकिन मौजूदा दौर में राजनीति के धृतराष्ट्र इन बातों को भूलते जा रहे हैं। राजनीति या फिर सरकार में बैठे लोगों को समझना होगा कि आम जनता की आंखों में धूल झोंकना आसान नहीं है। कैग की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा होता है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में टेलीकॉम कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए देश के सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगी, लेकिन देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत दिनों तक तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा का बचाव करते नजर आ रहे थे, जबकि इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद आरोपियों पर तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए थी। बात किसी एक घोटाले की नहीं है, नागरिक उड्डयन मंत्रालय को लेकर कैग की ही एक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि निविदा शर्तो का उल्लंघन कर डायल को 3415 करोड़ रुपये का भारी मुनाफा हुआ। आखिर कब तक देश की सरकार आम आदमी के हितों की अनदेखी कर निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने में जुटी रहेगी? साख की चिंता घोटाले और भ्रष्टाचार की कहानी यहीं नहीं थमती, आकाश से लेकर पाताल तक हर तरफ घोटाले पर घोटाले होते रहे, लेकिन राजनीति के धृतराष्ट्र ठोस कार्रवाई की बजाय जान-बूझकर इसे नजरअंदाज करते रहे। देश की चुनिंदा निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार ने कोयला खानों का आवंटन कौडि़यों के भाव कर दिया। कोयला खदानों को प्रतिस्पर्धी बोलियों के बजाय आवेदन के आधार पर देने से सरकार को 17.40 अरब टन कोयले पर 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। कैग ने वर्ष 2004 से 2009 के बीच कोयला ब्लॉक आवंटन की जांच की है और इस बीच वर्ष 2006 से 2009 तक कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संभाल रहे थे। कैग की रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बजाय सरकार और कांग्रेस के तमाम महारथी कैग की भूमिका पर ही सवाल उठाने में जुटे रहते हैं। देश की संवैधानिक संस्था को चुनौती देकर क्या हम अपने लोकतंत्र को मजबूत रख सकते हैं? कैग की रिपोर्ट पर लोक लेखा समिति विचार करती है, लेकिन मौजूदा दौर में जरूरत इस बात की है कि सरकार कैग जैसी संस्था पर सवाल खड़े करने की बजाय उसकी सिफारिशों पर गंभीरता से गौर करे और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे। आखिर कब तक सरकार या हमारे प्रधानमंत्री खोखली बातों के आधार पर देश की साख को लेकर चिंतित होंगे? संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की कुछ समय पहले जारी मानव विकास रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया था कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं। इस रिपोर्ट में गरीबी का मूल्यांकन करने के लिए आय के अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर जैसी बातों को शामिल किया गया था और इस आधार पर भारत में गरीबों की तादाद 61 करोड़ बताई गई थी यानी हमारी आधी से भी ज्यादा आबादी गरीब है। क्या संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के इन आंकड़ों से देश की साख दांव पर नहीं लगती? आज जरूरत इस बात की है कि राजनीति के धृतराष्ट्र अपनी आंखों पर बंधी पट्टियों को खोलें और दो वक्त की रोटी तथा बुनियादी जरूरतों की जद्दोजहद में जुटी आम जनता की मुश्किलों को दूर करने के लिए पहल करे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran Nation Edition 18-10-2012 राजनीति Pej-9

Tuesday, October 16, 2012

भाजपा की जगह केजरीवाल



पिछले हफ्ते जब टीवी चैनल देश के सबसे महत्वपूर्ण दामाद के कारोबार में वित्तीय गड़बडि़यों का शोर मचाए हुए थे, अमेरिका में रह रहे मेरे एक मित्र ने एक दिलचस्प ट्वीट किया। उन्होंने लिखा अरविंद केजरीवाल को जल्द ही एक राजनीतिक सबक मिलेगा कि कोई राजनीतिक दल बनाना और उसे कायम रख पाना एक टीवी शो से कहीं ज्यादा मुश्किल काम है। रॉबर्ट वाड्रा पर केजरीवाल की ओर से लगाए गए आरोपों को शक के घेरे में लाया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि इन्हें गंभीरता से लिया गया। सभी जानते हैं कि इसकी तब तक कोई गारंटी नहीं कि जोर-शोर से लांच किया गया उत्पाद सफल होगा ही जब तक कि यह लोगों की मांग पर खरा न उतरता हो और विश्वसनीय न हो। मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल और उनके साथी, जिन्होंने राजनीति में दखल देने का फैसला किया है, आने वाले समय के अपने लंबे सफर से वाकिफ नहीं होंगे। उन्हें यह भी मालूम होगा कि पैदा होते ही शोर मचाने से पहचान नहीं मिल जाती है। केजरीवाल की पार्टी का भविष्य बहस का विषय हो सकता है। उनके कार्यकर्ता जनलोकपाल बिल को लेकर एकमत हैं, लेकिन इसके अलावा लोकनीति के बड़े सवालों पर विरोधाभास ही दिखाई देते हैं। हां, अन्ना हजारे के साथ मंच साझा करने वाले कुछ लोग जरूर एक मुद्दे पर चले अभियान को एक वैकल्पिक दिशा देकर अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं। हालांकि केजरीवाल के आंदोलन में विरोधाभासों का उभरना भविष्य पर निर्भर करता है, लेकिन आज ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनता के बीच की गई इस वाइल्ड कार्ड एंट्री ने सियासी हलके में खलबली मचा दी है। कांग्रेस के वफादारों की बेचैनी समझ में आती है। सलमान खुर्शीद का अपनी नेता के लिए जीवन कुर्बान कर देने का प्रस्ताव और रेणुका चौधरी का टीवी पर असाधारण प्रदर्शन इसके गवाह हैं। आखिर रॉबर्ट वाड्रा कोई साधारण कारोबारी तो हैं नहीं। वह गांधी परिवार से ताल्लुक रखते हैं और एसपीजी सुरक्षा की विशेष हैसियत रखते हैं। सबूतों के साथ उनसे भिड़ने का मतलब है सीधे सोनिया गांधी से टकराना, जिन्होंने अपने लिए मदर इंडिया की छवि गढ़ी है। किसी भी विकसित लोकतंत्र में इस तरह के खुलासों का परिणाम बड़ी संख्या में इस्तीफों और राजनीतिक जीवन से संन्यास के रूप सामने आना चाहिए, लेकिन भारत जैसे बनाना रिपब्लिक (जैसा कि रॉबर्ट वाड्रा ने कहा) में वाड्रा खुद पर आरोप लगाने वालों का ही उपहास उड़ाते दिखाई देते हैं। शीर्ष कैबिनेट मंत्री तक उन्हें भलाई का प्रमाणपत्र जारी करते घूम रहे हैं। और तो और प्रधानमंत्री तक जनता में भ्रष्टाचार को लेकर फैल रही नकारात्मकता को दोष दे रहे हैं। यदि कांग्रेस सामने आ रहे सबूतों के बावजूद बेशर्मी पर उतारू है तो यह उसकी स्वभावगत विशेषता है और इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। हां, इस बात पर आश्चर्य जरूर हो सकता है कि इस खुलासे से मुख्य विपक्षी दल तक भौंचक्का रह गया। इसे विपक्ष के दायरे में किसी बाहरी व्यक्ति के अनाधिकार प्रवेश के खिलाफ उपजे विद्वेष से समझा जा सकता है। दिल्ली में बिजली की बढ़ी हुई दरों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन के दौरान विजय गोयल का धमकना इसी की गवाही देता है। केजरीवाल के राजनीति के दलदल के दरवाजे तोड़कर उसमें घुसने की एक पृष्ठभूमि है। आदर्श स्थिति तो वह होती जब वाड्रा पर यह बहस मार्च 2011 में ही शुरू हो जाती। तब एक अखबार ने अपनी रिपोर्ट में वाड्रा की डीएलएफ से नजदीकियों और उनके कारोबार की बड़ी सफलता के प्रति चेताया था। उस वक्त भाजपा में अरुण जेटली और यशवंत सिन्हा सरीखे बड़े नेता इस मुद्दे को संसद से सड़क तक उठाना चाहते थे। उनके पास वे तमाम विवरण थे जो केजरीवाल ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया के सामने पेश किए थे। भाजपा को इस सवाल का जवाब देने की जरूरत है कि पार्टी नेतृत्व ने यह निर्णय क्यों लिया कि राजनेताओं के बच्चों को राजनीतिक हमलों से छूट मिलनी ही चाहिए? यह भाजपा का कोई अवसर चूक जाने का विलाप नहीं है। सभी जानते हैं कि मुख्य विपक्षी दल संप्रग के अंतहीन घपलों-घोटालों पर उसे घेरने में इसलिए असफल रहा कि कहीं उसके अपने नेताओं पर कोई उंगली न उठ जाए। भाजपा संप्रग सरकार को भ्रष्टाचार पर इसलिए पूरी तरह नहीं घेर पाई, क्योंकि खुद उसके नेता भ्रष्टाचार में लिप्त थे। उन्होंने कांग्रेस के साथ राजनीतिक इक्विटी के लाभांश को बांटने का एक सुविधाजनक समझौता कर लिया और अपना विपक्ष धर्म ही त्याग दिया। वाड्रा को घेरने का मतलब है गांधी परिवार पर उंगली उठाना। यह बात राजनीतिकरण की शिकार जांच एजेंसियों पर भी उतनी ही लागू होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत से भाजपा नेता अच्छे दिनों के लौटने का इंतजार करते हुए थक गए हैं, जिनका अपना दामन साफ नहीं है। उन्होंने इस हद तक समझौता कर लिया है कि उनका विपक्ष सरकार के घोटालों पर कोई ध्यान ही नहीं देगा। इस सड़ी-गली व्यवस्था में उनकी भागीदारी इतनी है कि उन्होंने इस गंदगी को साफ करने के लिए चुनौती देने का नैतिक अधिकार खो दिया। वे खुद इस समस्या का हिस्सा बन चुके हैं। हो सकता है कि केजरीवाल लोकप्रियता के भूखे हों, लेकिन वह एक निडर शख्स के तौर पर उभरकर सामने आए हैं। ऐसा शख्स जिसने देश के पहले परिवार की शक्ति को चुनौती देने के लिए ललकारा है। यदि वह अपनी इसी बेबाकी और निडरता को कायम रखते हैं तो बहुत मुमकिन है कि उनकी पार्टी अच्छा खासा राजनीतिक दायरा हासिल करने में कामयाब हो जाए और वह शहरी भारत में बुराइयों से लड़ने के लिए एक प्रभावी व्यवस्था के तौर पर भी उभर सकते हैं। उनका एक ऐसे इलाके में अच्छा उठना-बैठना है जिसका झुकाव स्वाभाविक तौर पर भाजपा की ओर है। इसलिए यदि वह या उनकी पार्टी भाजपा के गढ़ से जीतने में कामयाब हो जाती है तो भाजपा अपने नैतिक पतन का दोष किसी और को नहीं, बल्कि सिर्फ खुद को ही दे सकती है। भाजपा ने व्यापक जनहित के प्रति अपने समर्पण की मूल भावना को ही गलत दिशा में मोड़ दिया है। अब उसे एक उद्देश्य के साथ क्षतिपूर्ति करने के लिए सबसे पहले अपने ही गंदे तंतुओं को खुद से दूर करना होगा। भारत आज एक बेहतर सरकार चाहता है और देशवासी इसके लिए जरूरी हर योग्यता पर खरे उतरते हैं। इसके साथ ही जनमानस की मांग एक साफ-सुथरे विपक्ष की भी है। भारत बेहतर के लिए बदलाव चाहता है और यह बदलाव समय की मांग है।

Dainik Jagran National Edition 15-10-2012 jktuhfr) Pej-8