Friday, September 21, 2012

कांग्रेस की विदाई का वक्त




सत्ता और अर्थनीति लोकहित के ही उपकरण हैं। इसी तरह आर्थिक सुधार भी। राजनीति ही अर्थनीति को लागू करने का माध्यम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र के ही विद्वान हैं, लेकिन सत्ता संचालन के लिए वह सोनिया गांधी से निर्देशित हैं। देश और राजनीति की नासमझी ही प्रधानमंत्री पर भारी पड़ी है। खुदरा व्यापार में एफडीआइ, डीजल में मूल्यवृद्धि और रसोई गैस में सब्सिडी की कटौती को आर्थिक सुधार बताने वाले प्रधानमंत्री की सरकार आइसीयू में है। राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण है। बाजार के बड़े खिलाड़ी खुश हैं, लेकिन भारत बंद रहा। मनमोहन सिंह बाजार हित में लड़ते हुए शहीद होने के मूड में हैं। वह भ्रष्टाचार और महंगाई के लिए देसी मीडिया व पक्ष-विपक्ष की आलोचनाएं झेल रहे थे। आर्थिक सुधारों आदि को लेकर विदेशी मीडिया ने उन्हें असफल बताया था। उन्होंने खामोशी को ही स्वर्णसूत्र बताया था, लेकिन अब खामोशी के दिन गए। उन्होंने कहा कि बड़े आर्थिक सुधारों का समय आ गया है, सरकार को जाना ही है तो कुछ दिखाकर जाए। बात साफ है कि सरकार जाए तो जाए बाजार घाटा क्यों उठाए? बाजार की खुशहाली ही सरकार का दायित्व है, लेकिन प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि बड़े आर्थिक सुधारों का वक्त अब क्यों आया है? पहले क्या कठिनाई थी? क्या 2जी, कामनवेल्थ कोयला घोटाला, महंगाई और भ्रष्टाचार की आलोचना से ध्यान बंटाने के लिए ही प्रधानमंत्री ने इसे उचित समय कहा है। आर्थिक सुधार की परिभाषा भी प्रधानमंत्री ने नहीं बताई। प्रधानमंत्री की घोषणाओं से समूचे देश में हड़कंप है। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लगभग 7-8 करोड़ लोगों के बेरोजगार होने के खतरे हैं। 20-25 लाख नए रोजगार सृजन की ही संभावनाएं बताई जा रही हैं। इसके पहले तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने संसद को आश्वस्त किया था कि खुदरा व्यापार में एफडीआइ आम सहमति से ही लागू होगा, लेकिन प्रधानमंत्री ने सहयोगी दलों को भी विश्वास में नहीं लिया। डीजल की मूल्यवृद्धि का असर चक्रानुवर्ती होता है। इसका असर पड़ चुका है। परिवहन सेवाएं और माल ढुलाई महंगी हो चुकी हैं। महंगाई को नए पंख लगे हैं। रसोई गैस की कटौती से हरेक घर में आंसू हैं। देश इस सबके लिए तैयार नहीं था। राजनीतिक वातावरण खिलाफ है। विपक्षी राजग के साथ गैरसंप्रग दल भी मैदान में हैं। सत्तारूढ़ घटक तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन वापसी की घोषणा की है। दूसरे घटक द्रमुक ने भी विरोध किया है। बाहर से समर्थन दे रही सपा व बसपा ने भी आलोचना की है। सरकार की घोषणा वस्तुत: कांग्रेस की ही घोषणा है, इन फैसलों को संप्रग के घटक दलों का भी समर्थन नहीं है। सरकार इस घोषणा को लेकर अल्पमत में है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पहले से ही जनविश्वास खो चुकी थी। ताजा घोषणा के जरिये प्रधानमंत्री ने राजनीतिक अस्थिरता को ही न्यौता दिया है। ममता निर्मम हो गईं, मानमनौवल के विकल्प सीमित हैं। सपा और बसपा का अपना एजेंडा है। ममता का एजेंडा सार्वजनिक है, लेकिन सपा और बसपा को पाले में रखने के लिए बड़ी कीमत की दरकार होगी। देखा-देखी द्रमुक भी आंख दिखाए तो बेजा क्या है? भारत के सामने तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां हैं। अस्थिर सरकार का इकबाल नहीं होता। कांग्रेस बेशक गलत तरीकों से बहुमत जुटाती रही है, लेकिन सरकारों की बदनामी भी कम नहीं हुई। नरसिंह राव की सरकार में समर्थक दल के कुछेक सांसद समर्थन की कीमत वसूलने के आरोपी थे। मनमोहन सिंह की सरकार में ही वोट के बदले नोट का वीभत्स आचरण हुआ। केंद्र के सामने बहुमत बनाए रखने की चुनौती है। प्रधानमंत्री के बयान पर विश्वास करें तो वह लड़ते हुए सरकार गंवाने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री के साहस के कोई तो कारण होंगे। वरना जानबूझकर अपनों को ही अलग करने वाले फैसलों का तुक क्या है? विदेशी पूंजी का स्वागत मनमोहन-अर्थशास्त्र का प्रमुख सिद्धांत है। डॉ. सिंह का अर्थशास्त्र अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की उधारी है। 1970 के दशक में फ्रीडमैन की ही अगुवाई में विदेशी पूंजी का स्वागत और समाज कल्याण की योजनाओं पर धन न खर्च का काम हुआ था। अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने भी यही अर्थनीति आगे बढ़ाई थी, लेकिन भारत ने इसे पसंद नहीं किया। 1717 में मुगल सम्राट ने शाही फरमान के जरिये ईस्ट इंडिया कंपनी को करमुक्त आंतरिक व्यापार की छूट दी थी। कंपनी ने देश लूटा। कंपनी विदेशी पूंजी लाई, विदेशी पूंजी के साथ साम्राज्यवाद भी आया था। भारत का कच्चा माल विदेश गया। बेशक नए अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विदेशी पूंजी को अछूत नहीं माना जाता, लेकिन व्यापार और बाजार को सर्वथा मुक्त करना और स्वदेशी उद्यम को कमतर करना भारत के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। स्वदेशी और विदेशी व निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में कोई संतुलन तो बनाना ही होगा। दरअसल कांग्रेस ऐसे राष्ट्रीय प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं थी। प्रधानमंत्री पहले ही थक चुके थे। भ्रष्टाचार और महंगाई के आरोपों से कांग्रेस की नींद हराम थी ही कि कोयला घोटाले के पर्दाफाश से कांग्रेस बेहद डर गई। संसद, सर्वोच्च न्यायपीठ और फिर कैग सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं की टिप्पणियों से कांग्रेस बौखला गई। कांग्रेस ने कैग पर भी हमले किए। मुद्दा बदलना जरूरी था। प्रोन्नतियों में आरक्षण के विधेयक से मुद्दा बदलने की कोशिश व्यर्थ रही। सो डीजल, रसोई गैस और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश जैसे अतिविवादित निर्णय सामने हैं। कोयला घोटाला पीछे भले ही हो गया हो, लेकिन उसने पीछा नहीं छोड़ा, उल्टे घटक दल भी ताजा निर्णयों को लेकर पीछा छुड़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री और कांग्रेस बुरे फंसे हैं। मुद्दा बदलने के बदले राजनीतिक अस्थिरता ही हाथ लगी है। ताजा अस्थिरता खतरनाक है। संप्रग एकजुट नहीं है। प्रधानमंत्री ने अपने गठबंधन के साथ-साथ देश का विश्वास भी खो दिया है। सोनिया का नेतृत्व असफल हो गया है। केंद्र के सामने दो ही विकल्प हैं। पहला यह कि मोलभाव की सरकार चलाएं। कभी इनको समझाएं और कभी उनको। दूसरा विकल्प है कि अपने घटक दलों, विपक्ष और आमजनों से लड़ते हुए प्रायश्चितपूर्ण विदाई लें। राव की तरह अपने अनुभवों पर किताब लिखें। नए चुनाव हों, नई सरकार आए। राजग पहले से उनका त्यागपत्र मांग रहा है। मुलायम सिंह को भी जल्दी चुनावों से ही फायदा होने वाला है। 2014 तक यूपी की सरकार अलोकप्रिय हो जाएगी। केंद्र को मुलायम का समर्थन भी आगामी चुनाव की उनकी तैयारी तक ही मिलने वाला है। कांग्रेस की विदाई का मौसम है। भविष्य की बातें चुनाव नतीजे बताएंगे। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं)

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण पेज -8,21 -9-2012 jktuhfr

No comments:

Post a Comment