असम के लोगों के लिए पिछले कुछ हफ्ते भयावह रहे हैं। गैर-कानूनी बांग्लादेशी अप्रवासियों और बोडो समुदाय के बीच हिंसक झड़पों में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और लाखों लोग बेघर हो गए। यदि आप सोच रहे हैं कि केंद्र और राज्य सरकार सीमापार से आ रहे इस खतरे को रोकने के प्रयास कर रही हैं तो आपकी उम्मीदें कुछ ज्यादा हैं। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और केंद्र सरकार वास्तविकता स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं। मुख्यमंत्री दावा करते हैं कि असम में आ रहे जनसांख्यिकीय बदलाव का बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ से कोई लेना-देना नहीं है। यह वोट बैंक की घटिया राजनीति और अवसरवादिता का नमूना है। पिछले दिनों एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में गोगोई ने कहा था, राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि ज्यादातर मुस्लिम निरक्षर हैं और उनके हर परिवार में छह से दस सदस्य हैं। मुख्यमंत्री को यह भी नहीं लगता कि घुसपैठियों की पहचान के लिए बने न्यायाधिकरण प्रभावी हैं। उनके मुताबिक ऐसे न्यायाधिकरणों में तीन लाख मामले हैं। इनमें से ज्यादातर रद कर दिए गए हैं, क्योंकि यह साबित करना बेहद मुश्किल है कि वे विदेशी हैं। अब कोई गोगोई से यह पूछे कि वह इसी देश के नागरिक हैं और असम में उनका स्थाई निवास है या फिर उन्हें यहां की जमीनी हकीकत का अहसास ही नहीं हैं? दक्षिण का एक सामान्य व्यक्ति भी आज असम में सीमापार से हो रही घुसपैठ से परिचित है। मुख्यमंत्री से यह सवाल इसलिए भी किया जाना चाहिए, क्योंकि बांग्लादेशी घुसपैठियों से होने वाले खतरे को पहले ही रेखांकित किया जा चुका है। नवंबर 1998 में असम के तत्कालीन राज्यपाल एसके सिन्हा ने ऐसे ही खतरे से आगाह करती एक रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी थी। उसमें उन्होंने कहा था कि यदि जनसांख्यिकी के इस हमले को नहीं रोका गया तो गैर कानूनी घुसपैठिए असम के स्थानीय लोगों का सूपड़ा साफ कर डालेंगे। हो सकता है कि उत्तर-पूर्व बाकी भारत से कट ही जाए। उस रिपोर्ट में जनरल सिन्हा ने आगाह किया था कि असम में यह जनसांख्यिकीय हमला कई दशकों से चल रहा है और सरकारें इसे रोकने में नाकाम रही हैं। शुरुआती सालों में इसे स्थानीय समस्या के तौर पर लिया गया और इस अदूरदर्शी विचार का ही नतीजा हुआ कि सरकार ने इस बदलाव के दूसरे पहलू को नजरअंदाज कर दिया। तब सिन्हा ने कहा था असम की भू-सामरिक महत्ता, बांग्लादेश की बढ़ती आबादी और बढ़ता अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक रूढि़वाद सीमापार से हो रही इस घुसपैठ से आने वाली खतरनाक परिस्थिति को रेखांकित करता है। इसके मद्देनजर हमें पंथनिरपेक्षता के ऐसे गुमान में नहीं रहना चाहिए कि इस सच्चाई को देख ही न सकें। सिन्हा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के एक बड़े मुद्दे को वोट बैंक की राजनीति से जोड़ने पर अफसोस जताया था। उनके बाद 2005 में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की बेंच ने भी यह मुद्दा उठाया। जस्टिस आरसी लाहोटी, जीपी माथुर और पीके बालासुब्रंाण्यम ने जनरल सिन्हा की रिपोर्ट को ही आधार बनाकर कहा था कि उप सेना प्रमुख का पद संभालने वाले शख्स की यह रिपोर्ट देश में बांग्लादेशी नागरिकों की मौजूदगी बताने के लिए पर्याप्त है। बेंच ने कहा था कि राज्यपाल की रिपोर्ट, हलफनामे और दूसरे दस्तावेज बताते हैं कि लाखों बांग्लादेशी गैर कानूनी रूप से अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके आ गए हैं और असम की जमीन पर अपना अधिकार जमा लिया है। अदालत ने तब कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण असम बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति का सामना कर रहा है। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र सरकार का दायित्व बनता है कि वह असम को उचित सुरक्षा मुहैया कराए। जनरल सिन्हा और तीन जजों की इस बेंच के अलावा और भी बहुतेरे ऐसे प्रमाण हैं जो इस तरह की घुसपैठ की पुष्टि करते हैं। विदेशी नागरिकों के संदर्भ में राज्य में सक्रिय न्यायाधिकरणों ने चार लाख घुसपैठियों का पता लगाया है। हाल ही में आई मीडिया रिपोर्ट भी कहती हैं कि उनमें से एक को भी वापस बांग्लादेश नहीं भेजा गया। वे सभी हमारे बीच घुल मिल गए। इसके कई कारण हैं। जैसे विदेशियों के लिए बना कानून किसी भी संदिग्ध विदेशी को तब तक हिरासत में लेने की इजाजत नहीं देता जब तक उन पर न्यायाधिकरण अपना फैसला न दे दे। फिर न्यायाधिकरण द्वारा किसी संदिग्ध को घुसपैठिया घोषित कर दिए जाने के बाद भी वे हमारी सुस्त न्याय प्रणाली का लाभ उठा लेते हैं। वे अपील करते हैं और अक्सर गायब हो जाते हैं। यदि भारत कुछ मामलों में किसी निर्णय पर पहुंचता भी है तो फिर दूसरी अड़चनें सामने आ जाती हैं। मसलन, भारत की बांग्लादेश के साथ प्रत्यर्पण संधि नहीं है और इसीलिए उन पर मुकदमा चलाना भी कठिन है। फिर चूंकि उनकी पहचान की भी कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए उन्हें वापस भेजने में भी उतनी ही मुश्किल का सामना करना पड़ता है। इस तरह सीमापार की ये घटनाएं बेलगाम हो गई हैं और अब भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनकर खड़ी हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण पिछले 30 सालों में देश के कई जिलों में इस तरह के जनसांख्यिकीय बदलाव आए हैं कि उनमें अपने ही देश के नागरिक अल्पसंख्यक बनकर रह गए हैं। ऐसे जिलों में बरपेटा, गोलपाड़ा, धुबड़ी, हेलाकंडी, करमगंज और नौगांव जैसे कुछ नाम शामिल हैं। इन तमाम पहलुओं और तथ्यों के प्रकाश में हमें गोगोई के बयान पर क्या कहना चाहिए? जब मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दूसरे नेता कहते हैं कि जनसांख्यिकी में बदलाव घुसपैठियों के कारण नहीं हो रहा है तो आप उनके भोलेपन पर मत जाइएगा। यह गलती न ही करें तो बेहतर है, क्योंकि वे तो अपना काम कर रहे हैं। किसी भी कीमत पर सत्ता हथियाने के लिए लगातार प्रयासरत रहने वाले गोगोई और उनकी पार्टी घुसपैठियों को शह देती आई है और उन्हें अपना वोट बैंक मानती है। तमाम रिपोर्टो और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद साफ है कि सत्ता के लिए देश की अखंडता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। गोगोई और उनकी कांग्रेस के लिए प्राथमिकताओं का क्रम तय है। उनके लिए सबसे पहले है अपना हित, फिर आता है पार्टी हित और जब ये दोनों पूरे हो जाएं तो उसके बाद नंबर आता है राष्ट्रहित का। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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