भारत बंद
के जरिये विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार के कुछ सहयोगी दलों ने आम जनता के गुस्से को भुनाने के साथ अपनी ताकत
का प्रदर्शन भले कर लिया हो, लेकिन इसमें
संदेह है कि वे देश को नई दिशा देने में सफल होंगे। कुछ ऐसी ही स्थिति सत्तापक्ष की भी है। ममता बनर्जी के
संप्रग से बाहर होने के अपने निर्णय पर अडिग रहने के बाद वह यह कहकर अपनी बेफिक्री का अहसास अवश्य करा रहा है कि केंद्रीय सत्ता के लिए कहीं कोई
खतरा नहीं, लेकिन उसके नीति-नियंता यह भली तरह जानते हैं कि आने वाले दिन आसान नहीं।
केंद्र सरकार अल्पमत में आ गई
है और यह कठिन है कि सपा-बसपा कब तक उसका साथ देते रहेंगे? यह भी आसानी से
समझा जा सकता है कि ये दोनों दल केंद्र सरकार को दिए जा रहे समर्थन की कीमत भी वसूल करेंगे। यह तय है कि
कांग्रेस अपने नेतृत्व वाली
सरकार को बनाए रखने के लिए हर तरह के समझौते करने के लिए तैयार होगी, लेकिन इस स्थिति
में राष्ट्रीय हितों की पूर्ति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। केंद्र सरकार हाल के अपने आर्थिक फैसलों पर
अडिग अवश्य है, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में इन फैसलों और विशेष रूप
से रिटेल कारोबार में
विदेशी पूंजी को अनुमति देने के निर्णय पर अमल मुश्किल नजर आ
रहा है। आखिर विदेशी कंपनियां इस आशंका के
बीच भारत में निवेश के लिए आगे क्यों आएंगी कि उनके उद्यम खटाई में पड़ सकते हैं? राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर अस्थिरता का जो माहौल निर्मित हो रहा है
उसके लिए यदि कोई
जिम्मेदार है तो वह है सिद्धांतहीन गठबंधन राजनीति। इससे इन्कार नहीं कि वर्तमान दौर गठबंधन राजनीति का है और
हाल-फिलहाल यह दौर जारी
रहेगा, लेकिन इसके आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते कि
इस राजनीति के कोई नियम-कानून
तय होंगे। यह आश्चर्यजनक है कि सभी दल गठबंधन राजनीति के मौजूदा तौर-तरीकों से त्रस्त हैं और फिर भी वे उनके कोई
नियम-कानून तय करने के पक्षधर
नहीं। जिसे गठबंधन राजनीति बताया जा रहा है वह वस्तुत: सौदेबाजी की राजनीति है। कभी-कभी तो यह राजनीतिक
ब्लैकमेलिंग का रूप ले लेती है। इसके उदाहरण भी सामने आ चुके हैं। राजनीतिक दल गठबंधन राजनीति का अपनी सुविधा के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं। वे
एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं, एक-दूसरे की असफलताएं गिनाते हैं और
फिर जनहित, राष्ट्रहित का हवाला देकर हाथ मिला लेते हैं। गठबंधन राजनीति का
एक विकृत पहलू सरकारों को बाहर से समर्थन देने की नीति है। कहा यह जाता है कि समर्थन मुद्दों पर आधारित है, लेकिन
सच्चाई इसके विपरीत होती है। अब तो स्थिति यह है कि गठबंधन सरकारें न्यूनतम साझा कार्यक्रम सरीखी किसी व्यवस्था पर भी
यकीन नहीं कर रहीं। इसमें
संदेह नहीं कि संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में खुद की दुर्गति करा ली और इसके लिए वही सबसे अधिक
जिम्मेदार है, लेकिन यदि गठबंधन राजनीति इसी तरह चलती रही तो अन्य मिली-जुली
सरकारों का भविष्य भी शुभ नहीं कहा जा सकता।
दैनिक जागरण राष्ट्रीय
संस्करण पेज -8,21 -9-2012 jktuhfr
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