रमेश दुबे चुनावी अखाड़े में जोर आजमाइश का ख्वाब देखने वाली टीम अन्ना
के लिए यह खबर निश्चित रूप से
झटका देने वाली है कि देश की राजनीतिक पार्टियों को चंदे में मिल रही रकम कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे जितनी है। इसका
खुलासा तब हुआ, जब चुनाव सुधार में जुटे दो
गैरसरकारी संगठनों एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और इलेक्शेन वॉच ने सूचना के अधिकार के तहत
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे
के बारे में आयकर विभाग और चुनाव आयोग से जानकारी मांगी। इन दोनों संगठनों को 23 राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के बारे में जानकारी मिली, जिसके आधार पर इन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट के मुताबिक, 2004 से 2011 के दौरान देश के राजनीतिक दलों के
खजाने में 4662 करोड़ रुपये जमा हुए हैं। कांग्रेस 2008 करोड़ रुपये के साथ जहां शीर्ष पर है, वहीं भाजपा (994 करोड़ रुपये), बसपा (484 करोड़ रुपये) और माकपा (417 करोड़ रुपये) भी
किसी से कम नहीं वाली स्थिति में है। सबसे आश्चर्यजनक है कि सत्ता में आते ही पार्टियों के चंदे में अच्छी-खासी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उदाहरण के लिए 2004 से केंद्र में सत्ता में रही कांग्रेस के खजाने में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और पिछले सात
सालों में उसे भाजपा, बसपा, माकपा और सपा को
मिले कुल चंदे के बराबर रकम मिली। रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस की ज्यादातर आमदनी कूपन बेचने से हुई है। इस
दौरान उसे दान के रूप में महज 14.42 फीसद रकम ही मिली। कांग्रेस को दान देने वालों में टाटा और जिंदल से लेकर एयरटेल का भारती ट्रस्ट और अदानी
ग्रुप शामिल हैं। इसके विपरीत
भाजपा की तिजोरी भरने में कॉरपोरेट घरानों से मिले चंदे की मुख्य भूमिका रही और उसके खजाने में 81.47 फीसद रकम चंदे के रूप में आई। भाजपा को चंदा देने वालों में विवादित कंपनी वेदांता भी शामिल
है। चंदे के बदले चांदी पार्टियों की तिजोरी में चंदे की बढ़ती आमद से साफ पता चलता
है कि डांवाडोल आर्थिक हालात से
इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। दूसरी आश्चर्यजनक बात यह है कि कुल चंदे का 85 फीसद अनाम लोगों ने दिया। यहां उल्लेखनीय है कि पहले राजनीतिक पार्टियां छोटी-छोटी राशियों जैसे 10, 20, 50 अथवा 100 रुपये के कूपनों
के जरिये लोगों से चंदा इकट्ठा करती थीं, लेकिन अब वे करोड़ों रुपये ले
रही हैं और उनका खजाना भरने वाले आम कार्यकर्ता न होकर बड़े-बड़े उद्योगपति हैं। उदाहरण के लिए आदित्य बिड़ला ग्रुप
से जुड़े हुए जनरल इलेक्टोरल
ट्रस्ट ने कांग्रेस को 36.4 करोड़ का चंदा
दिया तो भाजपा को 26 करोड़ रुपये। स्पष्ट है कि उद्योगपति
सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष को भी खुश रखना चाहते हैं ताकि विपक्ष अपना मुंह बंद रखे। नियमानुसार साल में 20,000 रुपये से ज्यादा चंदा देने वालों के नामों का ब्यौरा चुनाव आयोग को देना पार्टियों के लिए जरूरी है, लेकिन पार्टियों ने इस प्रावधान के तहत चंदे की जो सूची सार्वजनिक की है, वह उन्हें हुई कुल आमदनी का बहुत मामूली हिस्सा है। उदाहरण के लिए 2009-10 और 2010-11 में भाजपा ने घोषित दानदाताओं की जो रकम बताई, वह उसकी आमदनी का 22.76 फीसद थी, जबकि कांग्रेस की ओर से बताई गई रकम
तो सिर्फ 11.89 फीसद ही थी। राष्ट्रवादी क्रांग्रेस पार्टी ने 4.64 और माकपा ने 1.29 फीसद ही ऐसी रकम बताई।
गरीबों-वंचितों की चिंता में दुबली होने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने तो यहां तक कह दिया कि उसे इन दो सालों में
किसी ने 20,000 रुपये से ज्यादा
की राशि दी ही नहीं। बावजूद इसके कि इन्हीं सालों में उसे मिली दान की रकम 176.67 करोड़ रुपये थी। यहां सबसे बड़ा
सवाल यह है कि श्रमिकों की मजदूरी से लेकर मंदिरों के चढ़ावे तक में मुनाफा देखने वाले ये उद्योगपति पार्टियों के
प्रति इतनी दरियादिली क्यों दिखा रहे हैं? जाहिर है, इसके पीछे उनका
कोई बड़ा स्वार्थ होगा, जिसके पूरा होने पर वे दिए गए चंदे से कई गुना कमाई कर लेंगे।
यहां उत्तर प्रदेश का उल्लेख प्रासंगिक
होगा, जहां सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, लेकिन अधिकांश
सरकारी ठेके एक खास उद्योग समूह को मिलते रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति केंद्र और अन्य राज्यों में है। दूसरा सवाल
यह उठता है कि 2जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला खदान आवंटन तक में हुए भ्रष्टाचार को लेकर संसद से सड़क तक हल्ला मचाने वाला विपक्ष इस पार्टी
भ्रष्टाचार पर सन्नाटा क्यों खींचे हुए
है। हां, एक पहल सिविल सोसायटी की ओर से जरूर
हुई है। उसने मांग की है कि चंदे का स्त्रोत
बताने वाले नियमों का सख्ती से पालन किया जाए। लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती साबित हुई। इस हमाम में सब नंगे देखा जाए तो चंदे की राजनीति का मूल कारण हमारी चुनाव प्रणाली है, जो निरंतर खर्चीली
होती जा रही है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 65 साल बाद भी हम
कोई ऐसा कारगर तंत्र विकसित नहीं कर पाए, जो चुनावों में धनबल और बाहुबल पर अंकुश
लगा पाता। चुनाव आयोग भी लंबे समय तक पंगु बना रहा। टीएन शेषन के पहले के चुनाव आयुक्तों को तो बहुत कम लोग जानते थे, लेकिन टीएन शेषन
ने इस पद की गरिमा बहाल की। यद्यपि चुनाव आयोग के सख्त प्रयासों से झंडा, बैनर, गाडि़यों के काफिले आदि में कमी आई है
और सजायाफ्ता लोग भी चुनाव लड़ने से
वंचित हो गए। लेकिन जोड़तोड़ में माहिर नेताओं ने चुनाव आयोग के प्रयासों की काट ढूंढ़ ही लिया। उदाहरण के लिए मतदाताओं को नकद राशि का वितरण। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं
द्वारा शुरू की गई बीमारी अब
ग्राम पंचायत से विधानसभा के चुनावों तक फैल चुकी है। इसका प्रमाण हाल ही में देखने को मिला, जब दिल्ली नगर निगम के चुनावों में पार्षद बनने के इच्छुक उम्मीदवारों ने पांच सौ और हजार रुपये
के नोट लिफाफे में बंद कर
बंटवाया। भला ऐसे में निष्पक्ष चुनाव की कल्पना कैसे की जा सकती है। हालांकि चुनाव सुधार के लिए 1972 में तारकुंडे समिति, 1992 में वोहरा समिति और 1998 में इंद्रजीत
गुप्ता समिति का गठन किया गया, लेकिन उनकी
सिफारिशें आलमारियों में धूंल फांक रही हैं, क्योंकि वे राजनेताओं के हितों के अनुकूल नहीं रहीं। स्पष्ट है, यदि देश की राजनीति को चंदे के जाल से बाहर निकालना है तो इन समितियों की सिफारिशों पर सख्ती से अमल में
लाना होगा। इसी से राजनीति में सुचिता की वापसी
होगी। अन्यथा, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को माननीय बनने से रोकना मुश्किल होगा और एक
दिन ऐसा आएगा, जब लोकतंत्र लूट-खसोट करने का जरिया बन
जाएगा। चुनाव सुधार के साथ दूसरी बड़ी जरूरत
है राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की बहाली। देखा जाए तो भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार का मूल कारण दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव ही है। जब राजनीतिक दल ही
लोकतांत्रिक ढंग से नहीं चलेंगे तो
हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाएंगे। यदि दलों में नियमित रूप से चुनाव हों और
उनके खातों का ऑडिट कराया जाए
तो राजनीतिक भ्रष्टाचार पर एक बड़ी सीमा तक काबू पाया जा सकता है। बढ़े हुए चुनावी खर्च के लिए राज्य वित्तीयन एक सशक्त विकल्प है। चुनाव सुधार पर गठित लगभग सभी समितियों ने इसकी सिफारिश की है। इससे
न सिर्फ चुनाव निष्पक्ष होंगे, बल्कि स्वच्छ के छवि लोग भी राजनीति में आने का साहस जुटा पाएंगे। लेकिन समस्या यह है कि इन दूरगामी उपायों को
अपनाने में किसी की भी रुचि नहीं, क्योंकि इस हमाम में सभी नंगे हैं। ऐसे में देश को चंदे की राजनीति से शायद ही छुटकारा मिले। हां, इतना तो तय है कि इससे आम आदमी की कीमत पर मुट्ठी भर लोग अरबपतियों की सूची में जरूर जगह बना
लेंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण पेज -8,19-9-2012
राजनीति
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