उत्तर प्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। तलवारें खिंच चुकी हैं। नित नए मुद्दे उठाए जा रहे हैं और हर राजनीतिक दल जनता का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश में हैं। इसी कड़ी में सूबे की मुख्यमंत्री मायवती उत्तर प्रदेश को पूर्वाचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और पश्चिमी प्रदेश नाम से चार भागों में विभाजित करना चाहती हैं। विभाजन की बात करने वालों का तर्क यह भी है कि विकास के लिए राज्यों का छोटा होना मायने रखता है। क्या हकीकत की कसौटी पर क्या यह तर्क सही है? उत्तर प्रदेश का अल्प विकास किसी से छिपा नहीं है। बीमारू कहे जाने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। जबकि देश में औसत प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2009-10 में 33,731 रुपये थी। उत्तर प्रदेश में यह मात्र 16,182 रुपये ही थी। विकसित प्रदेशों मसलन, गुजरात में यह 49,030, हरियाणा में 55,214, महाराष्ट्र में 57,458 और दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय 89,037 रुपये थी। स्वाभाविक तौर पर उत्तर प्रदेश के लोगों में विकास की आकांक्षा है। दुर्भाग्य का विषय है कि उत्तर प्रदेश में आमदनी तो कम है ही, आर्थिक वृद्धि दर भी बहुत कम है। जहां गुजरात में पिछले पांच वर्षो में आर्थिक वृद्धि की दर 12.4 प्रतिशत की रही, वहीं अत्यंत अल्प विकसित बिहार की भी आर्थिक वृद्धि दर 11 प्रतिशत को पार कर गई। उत्तर प्रदेश की आर्थिक संवृद्धि दर अब भी औसत 6.5 प्रतिशत ही हो पाई। ऊपर से सरकारों की विकास के प्रति उदासीनता परिस्थितियों को और अधिक भयंकर बना रही है। हालांकि मायावती के इस प्रस्ताव को चुनावी स्टंट बताया जा रहा है। फिर भी इस विषय पर सही परिप्रेक्ष्य में चिंतन जरूरी है। देश में राज्यों के विभाजन, पुनर्गठन और इस प्रकार से छोटे राज्यों के गठन का अपना एक इतिहास है। वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत भाषाई आधार पर कई राज्यों का पुनर्गठन किया गया। पूर्व में बने पृथक राज्यों का विकास के संदर्भ में हमेशा ही अच्छा अनुभव रहा है। हम जानते हैं कि पूर्व में पंजाब को तीन हिस्सों में बांटा गया। पंजाब अन्य प्रांतों की तुलना में हमेशा ही देश का एक विकसित राज्य रहा है, लेकिन पंजाब के बंटवारे के बाद तीनों प्रांतों में अभूतपूर्व विकास देखने को मिलता है। हरियाणा का क्षेत्र जो पहले बहुत अधिक विकसित नहीं था, उसमें तेजी से विकास हुआ और आज हरियाणा किसी भी दृष्टि से पंजाब से पीछे नहीं है। आज हरियाणा की प्रति व्यक्ति आय पंजाब से भी 30 प्रतिशत अधिक है। पंजाब से कटकर बने हिमाचल प्रदेश में भी पहले से कहीं ज्यादा तेजी से विकास हुआ। हिमाचल प्रदेश में आज लगभग शत्-प्रतिशत साक्षरता है। पुरानी बातें छोड़ भी दें तो नव गठित राज्य जैसे छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड आदि ने अपने पुनर्गठन के बाद तेजी से विकास किया है। ये सभी राज्य पहले से ही पिछड़े प्रांतों में से उनके अधिक पिछड़े इलाकों को अलग करके बनाए गए थे, लेकिन फिर भी उन्होंने विकास के नए कीर्तिमान स्थापित किए। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश से कटकर बने छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य गठन से पूर्व 1993-94 से 1999-2000 के बीच उस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की वार्षिक दर 1 प्रतिशत से भी कम थी। गठन के बाद वर्ष 1999- 2000 से 2009-10 के बीच उसकी विकास दर 6.23 प्रतिशत तक पहुंच गई। जबकि शेष मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय की विकास दर 1 प्रतिशत से कम ही रह गई। लगभग यही स्थिति उत्तराखंड में देखने को मिलती है। जहां की प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर गठन से पूर्व 1 प्रतिशत से कम थी। नए राज्य के गठन के बाद यह वर्ष 1999-2000 से 2008-09 के बीच बढ़कर 7.14 प्रतिशत तक पहुंच गई। जबकि शेष बचे उत्तर प्रदेश की विकास दर में पहले से थोड़ी बेहतरी तो हुई, लेकिन उत्तराखंड से यह काफी कम मात्र 3.0 प्रतिशत ही रही। हां, झारखंड की स्थिति थोड़ी अलग दिखाई देती है, जहां गठन के बाद की विकास दर बढ़ी तो जरूर, लेकिन अन्य नए राज्यों से यह काफी कम दर्ज की गई। जबकि शेष बचे बिहार में नीतीश कुमार की सरकार के गठन के बाद प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर में तेजी आई, जबकि उतनी तेजी झारखंड में महसूस नहीं की गई। मोटे तौर पर छोटे राज्यों का गठन मंगलकारी रहा है। वहां के नागरिकों का जीवन स्तर विकास के मापदंडों के आधार पर बेहतर हुआ है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब भी नया राज्य गठित होता है तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों की अपेक्षाएं और इस कारण से नई सरकारों की स्पंदनशील सोच उस राज्य के विकास की वाहक बनती है, जबकि उन्हीं राज्यों के शेष हिस्से में ठहरी सोच उन्हें अल्पविकसित रखने में भूमिका निभाती है। चुनावी स्टंट ही सही, मुख्यमंत्री मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश के चार भागों में विभाजन का प्रस्ताव सही दिशा में एक कदम है। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
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