मुस्लिम आरक्षण को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति गरमाई हुई है। सपा, बसपा के बाद कांग्रेस भी चाहती है कि पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण मिले। हाल ही में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को ओबीसी कोटे में आरक्षण की वकालत कर इस बहस को एक बार फिर जिंदा कर दिया है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की हालत कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं दोनों ही क्षेत्रों में मुसलमानों की नुमाइंदगी कम है। सूबे में 18.5 फीसदी आबादी के बरक्स 7.5 मुसलमान ही फिलवक्त नौकरियों में हैं। मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हालातों का जायजा लेने वाली सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने केंद्र की संप्रग सरकार से सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों को पिछड़ा समझा जाए और केंद्र तथा सूबाई सरकारों की नौकरियों में उनके लिए 15 फीसदी स्थान चिह्नित किए जाएं। सच्चर आयोग पांच साल पहले और मिश्र आयोग करीब साढ़े तीन साल पहले अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है, लेकिन बावजूद इसके संप्रग सरकार ने आयोग की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं की हैं। मुल्क में मुसलमानों का पिछड़ापन इतना है कि शहरी इलाकों में तकरीबन 38 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 27 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे बदतरीन हालत में गुजर-बसर कर रहे हैं। उनके पिछड़ेपन की हालत देखते हुए मिश्र आयोग ने तो पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी कोटे में भी अल्पसंख्यकों का कोटा निर्धारित करने की वकालत की है, लेकिन केंद्र सरकार ने इस राह में अभी तलक कोई पहल नहीं की है। आयोग ने अल्पसंख्यकों के आरक्षण से जुड़ी पेचीदगियों से बचने के लिए अपनी रिपोर्ट में आरक्षण की बजाय चिह्नित शब्द का इस्तेमाल किया है और आयोग की यह सिफारिश संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के तहत पूरी तरह से वाजिब है। क्योंकि अनुच्छेद-16 हर हिंदुस्तानी को लोक नियोजन में अवसर की समानता की जमानत देता है। फिर समानता का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों में भी शामिल है, लेकिन बावजूद इसके सिफारिश को लागू करने में होने वाली व्यावहारिक कठिनाई को देखते हुए आयोग ने विकल्प के तौर पर दीगर पिछड़े वर्गो के 27 फीसदी कोटे में 8.4 फीसदी सब कोटा अल्पसंख्यकों के लिए चिह्नित करने की सिफारिश की है। हमारा मुल्क जब आजाद हुआ और संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी, उस वक्त हमारे रहनुमाओं ने एक ऐसे समाज का ख्वाब देखा, जो सामाजिक भेदभाव और गैर-बराबरी से आजाद हो। जहां ऊंच-नीच का फर्क न हो। किसी के साथ नाइंसाफी न हो। इनसे निपटने के लिए संविधान में बाकायदा उपबंध किए गए। जाहिर है, हमारे संविधान में मौजूद मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व इन्हीं विचारों से अनुप्राणित हैं, लेकिन अफसोसनाक है कि आजादी के 64 साल गुजर जाने के बावजूद हम सामाजिक अन्याय, भेदभाव और असमानता जैसी बुराइयां खत्म नहीं कर पाए। इसके पीछे कोई एक वजह ढूढ़ें तो वह बुनियादी वजह है कि हमारी जेहनियत नहीं बदली। जब तक हमारी जेहनियत में तब्दीली नहीं आएगी, तब तक हम न तो संवैधानिक उपचारों को सही ढंग से अमल में ला पाएंगे और न ही सामाजिक रूप से वंचित समूहों को वाजिब इंसाफ मिल सकेगा। यही प्रमुख वजह है कि वंचित और शोषित जातियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था महसूस की गई। जाहिर है, आरक्षण की व्यवस्था हिंदुस्तानी समाज में व्याप्त असमानता, अस्पृश्यता और भेदभाव को दूर करने और मुख्तलिफ हल्कों में दलित व पिछड़े वर्ग के लोगों की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करने के मकसद से की गई ताकि सामाजिक अन्याय को जड़ से खत्म कर भेदभाव रहित और बराबरी के जज्बे पर आधारित एक आदर्श समाज का निर्माण और विकास हो सके। कुल मिलाकर जो मुसलमान बरसों से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के शिकार रहे हैं, उन्हें आरक्षण की छतरी के तले लाना मौजूदा दौर में इंसाफ की मांग है। अवसरों से वंचित अधिकारविहीन लोगों को सामाजिक विभाजन का डर दिखाकर कब तलक तरक्की के मौकों से रोका जाता रहेगा। वास्तव में यह इंसाफ की लड़ाई है, इसे केवल आरक्षण के लिए संघर्ष के रूप में नहीं देख सकते। दरअसल, आरक्षण लोकतांत्रिक संघर्ष का छोटा-सा हिस्सा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
No comments:
Post a Comment