आरक्षण राजनीतिक दलों के सियासी खेल का दांव बनकर उभर रहा है। खाली थाली को दल भूख मिटाने का पर्याय मानकर चल रहे हैं। ये हालात इसलिए निर्मित हुए हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों ने जनता के बीच ठोस कामकाज के जरिये कारगर परिणाम देने का भरोसा खो दिया है। इसीलिए मायावती मुस्लिमों को आरक्षण देने का शिगूफा तो छोड़ती ही हैं, आर्थिक रूप से कमजोर ब्राह्मणों को भी आरक्षण देने का दांव चलती हैं। मायावती के इस दांव की काट के लिए कांग्रेस भी मुस्लिमों का कोटे में कोटा सुरक्षित करने के आधार पर जल्द आरक्षण देने जा रही है। उसके इस दांव का प्रमुख लक्ष्य उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में विजयश्री हासिल करना है। हालांकि कांग्रेस ने 2009 के आम चुनाव में जारी किए अपने घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि वह फिर से सत्ता में आई तो सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को आर्थिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देगी। कांग्रेस के समक्ष आरक्षण का मसला फिलहाल की स्थिति में गले में फंसी हड्डी की तरह है, क्योंकि यदि वह खासतौर से मुस्लिमों को केंद्र की नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान नहीं लाती तो वह इस समुदाय से कौन-सा मुंह लेकर वोट मांगेगी। दूसरी तरफ उसे आरक्षण की यह सुविधा केवल पिछड़ी जातियों के कोटे में देना संभव है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा के मुताबिक आरक्षण की 50 प्रतिशत से ज्यादा सीमा नहीं लांघी जा सकती। लिहाजा, ओबीसी के कोटे में सेंध लगाना भी कांग्रेस को महंगा पड़ेगा? पर मरता क्या न करता की तर्ज पर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एकमुश्त 18 फीसदी मुस्लिम वोट ललचा रहे हैं। उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ कांग्रेस भी अब आरक्षण की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है, क्योंकि विधानसभा नजदीक आते देख पहले उन्होंने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की मांग उठाई और फिर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण की मांग उठाकर आरक्षण के मुद्दे को चिंगारी दिखा दी। हालांकि यह चिंगारी सुलगकर ज्वाला बनने वाली नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले उठाई गई ये मांगें एक शिगूफा भर हंै। इससे न तो मुस्लिमों के हित सधने जा रहे और न गरीब सवर्णो के? वैसे भी इस मुद्दे की हवा केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह भरोसा देकर निकाल दी कि संप्रग सरकार सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में मुस्लिमों को आरक्षण देने का कानून इसी शीत कालीन सत्र में पेश कर रही है। इस दिशा में सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वह पहले ही ठोस कदम उठा चुकी है। आरक्षण के ये टोटके छोड़ने की बजाय किसी भी राजनीतिक दल को यह गौर करने की जरूरत है कि आरक्षण का एक समय सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था, लेकिन सभी वर्गो में शिक्षा हासिल करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से मौजूदा हालात में संभव नहीं है। इस सिलसिले में हम गुर्जर और जाट आंदोलनों का भी हश्र देख चुके हैं। लिहाजा, राजनीतिक दल अब सामाजिक न्याय के सवालों के हल आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाए रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालें तो बेहतर होगा। अगर वोट की राजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उन जातियों का समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं हो पाया है। केंद्र सरकार हल्ला न हो, इसलिए जिस कछुआ चाल से मुसलमानों को आरक्षण देने की तैयारी में जुटी है, अगर उस पर अमल होता है तो यह झुनझुना गरीब अल्पसंख्यकों के लिए छलावा ही साबित होगा। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के प्रगतिशील मंत्री सलमान खुर्शीद को जरूरत है कि मुसलमानों को धार्मिक जड़ता और भाषाई शिक्षा से उबारने के लिए पहले एक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाएं, क्योंकि कुछ मुस्लिमों ने शिक्षा का अधिकार विधेयक से आशंकित होकर शंका जताई थी कि यह कानून मुसलमानों की भाषाई शिक्षा प्रणाली पर कुठाराघात है। हालांकि खुर्शीद ने ऐसी आशंकाओं को पूरी तरह खारिज करते हुए साफ कर दिया था कि मदरसा शिक्षा या अनुच्छेद 29 और 30 की अनदेखी यह कानून नहीं करता। लिहाजा, मुसलमानों को सोचने की जरूरत है कि टेक्नोलॉजी के युग में मदरसा शिक्षा से बड़े हित हासिल होने वाले नहीं हैं। वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों या गरीब सवर्ण, उनकी बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उन्हें हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता, आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालत करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी बुनियादी मायने नहीं हैं। मौजूदा वक्त में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक के दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केंद्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है, लेकिन इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केंद्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। वैसे भी रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन जांच आयोग के तहत नहीं हुआ है। दरअसल, इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं, जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया, संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ पिछड़ा शब्द की शर्त का उल्लेख किए बिना इन्हें पिछड़ा मानकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। वैसे भी केरल में 12 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 10, तमिलनाडु 3.5, कर्नाटक 4, बिहार 3 और आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा 4 फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण पिछड़ा वर्ग के कोटे के आधार पर ही दिया गया है। केरल में तो आजादी के पहले से यह व्यवस्था लागू है। लिहाजा, इस प्रावधान के तहत छह प्रतिशत मुसलमान और 2.4 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण की सुविधा दी जा सकती है। लेकिन यहां गौरतलब यह भी है कि इन प्रदेशों में ओबीसी के कोटे में अल्पसंख्यक कोटा निर्धारित करना इसलिए आसान हुआ, क्योंकि यहां पिछड़ी जातियों की आबादी कम होने के कारण आरक्षित कोटा पूरा नहीं होता। यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है, क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मंडल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण को वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक और हिंसक हुए थे। इस लिहाज से आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में कोटे में कोटा की स्थिति उत्पन्न होती है तो सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ना तय है। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आईने से देखना बारूद को तीली दिखाना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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