Thursday, December 8, 2011

यूपी में छोटे दलों की संख्या पहुंची डेढ़ सौ


प्रदेश में 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में ताल ठोंकने के लिए पंजीकृत सियासी दलों की आमद बढ़ती ही जा रही है। सूबे में करीब डेढ़ सौ छोटे दल सियासी अखाड़े में कूदने को तैयार हैं, जबकि कई सूरमाओं की दल बनाने की अर्जी केंद्रीय निर्वाचन आयोग के अनुमोदन का इंतजार कर रही है। विधानसभा चुनाव में यह किनको नुकसान पहुंचाएंगे अभी कहना मुश्किल है, लेकिन 2007 के चुनाव में कुछ छोटे दलों ने ही कई दर्जन सीटों पर बड़ों का समीकरण बिगाड़ दिया था। आजादी के बाद यूपी विधानसभा के पहले चुनाव में 12 राष्ट्रीय और दो प्रांतीय दल मैदान में उतरे। तब कोई पंजीकृत दल नहीं था, लेकिन 2012 में होने वाले चुनाव के लिए पंजीकृत दलों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक हो गई है। 2007 में यूपी में 112 दलों ने किस्मत आजमाई। सूबे के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा के मुताबिक इस बार देश में 1178 पंजीकृत दल हैं। 1969 के विधानसभा चुनाव में भारतीय क्रांति दल, आर्य सभा, यूपी किसान मजदूर पार्टी समेत कुल 17 पंजीकृत दलों ने शिरकत की थी। तबसे यह सिलसिला थमा नहीं। बीच-बीच में इनकी संख्या घटती बढ़ती रही। 1974 में 16, 1977 में सात, 1980 में सात, 1985 में दो, 1989 में 26, 1991 में 23, 1993 में 25, 1996 में 23, 2002 में 75 और 2007 में 112 पंजीकृत दलों ने उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव लड़ा। इनमें अंबेडकर क्रांति दल, आदर्श लोकदल, आल इंडिया माइनारिटीज फ्रंट, भारतीय नागरिक पार्टी, बम पार्टी, जनसत्ता पार्टी, माडरेट पार्टी व विकास पार्टी जैसे कई दल हैं, जिन्हें 2007 में एक प्रतिशत भी मत हासिल नहीं हुए। सूबे का कोई कोना नहीं होगा, जहां के छोटे दल सियासी अखाड़े में न उतर गए हों। इनके कई रंग सामने आए हैं। बुंदेलखंड में सिने अभिनेता राजा बुंदेला बुंदेलखंड कांग्रेस, तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ता जटाशंकर स्वराज, डा. संजय चौहान जनवादी, मुख्तार अंसारी के बड़े भाई पूर्व सांसद अफजाल अंसारी कौमी एकता दल तथा जातिराज किताब लिखकर हंगामा खड़ा करने वाले नौकरशाह लक्ष्मीकांत शुक्ल मेधा पार्टी से इस बार चुनावी मैदान में होंगे। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह जनक्रांति पार्टी (राष्ट्रीय), सांसद अमर सिंह राष्ट्रीय लोकमंच व लोकसभा चुनाव में ताकत दिखा चुके डाक्टर अयूब पीस पार्टी के जरिए चुनावी बिगुल बजा चुके हैं। इसके अलावा पहले भी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ चुके कई पूर्व नौकरशाह, दबंग और दागी, कारोबारी तथा इलाकाई नेता भी पंजीकृत दलों के जरिए फिर जनता के दरवाजे पर हैं। सियासी दलों की वृद्धि वोटों के बिखराव का सबसे बड़ा सबब बनेगी। 2007 के चुनाव में पंजीकृत दलों में लोकतांत्रिक कांग्रेस को एक, भारतीय जनशक्ति को एक, जनमोर्चा को एक, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी को एक और उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को एक सीट मिली। पंजीकृत दलों में सर्वाधिक वोट पाने वाले अपना दल और फिर भारतीय समाज पार्टी को एक भी सीट नसीब नहीं हुई, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई सीटों पर बड़े दलों को समेट कर पीछे कर दिया। जनमोर्चा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई लोगों की राह में रोड़ा बन गया। राजनीति में अपराधियों, कारोबारियों व नौकरशाहों की बढ़ती सक्रियता ने यह स्थिति पैदा की है। राजनीतिक विश्लेषक सुशील वर्मा कहते हैं कि यह राजनीति के व्यवसायी करण का नतीजा है। क्रिमिनल से लेकर कारोबारी तक को पता है कि यहां सुरक्षा, समृद्धि और शोहरत तीनों है। इसलिए सबकी रुझान यहीं हैं। हालांकि छोटे दलों के कई नेताओं का कहना है कि इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी और सियासी मंचों तक आम आदमी की पहंुच बनेगी।

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