Saturday, October 13, 2012

माननीयों की आत्मकथाओं की महागाथा





द महीने पहले जब पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की आत्मकथा का दूसरा भाग - टर्रि्नग प्वॉइंट्स: ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज आया तो उसे लेकर भारत की राजनीति में लंबे समय से चल रहे कुछ विवादों पर विराम लग गया। कई भ्रांतियां दूर हुईं। इससे पहले जब 1999 में उनकी किताब विंग्स ऑफ फायर आई थी, तब उसने भारतीय प्रकाशन जगत में बिक्री के नए आंकड़ों को छुआ था। आत्मकथा के पहले खंड में कलाम ने अपनी जिंदगी के कहे-अनकहे पहलुओं पर लिखा था, जिसमें उनकी जिंदगी की 1992 तक की घटनाएं दर्ज थीं। विंग्स ऑफ फायर के प्रकाशन के 13 साल बाद उसका सीक्वल बाजार में आया है और उसकी भी बिक्री अच्छी हो रही है। सवाल कलाम की किताब की बिक्री का नहीं है। सवाल इस किताब की लोकप्रियता और राजनीतिक धुंध को छांटने में उसकी भूमिका से ही उपजा है। सवाल यह कि हमारे देश के राजनेता राजनीति सक्रिय में रहते हुए आत्मकथा क्यों नहीं लिखते? सवाल यह है भी है कि क्या हमारे नेताओं में लेखकीय संवेदना बची भी है? सवाल यह भी है क्या नेताओं में सच लिखने का साहस है, क्या उनमें कुर्सी और भविष्य का मोह इतना ज्यादा है जो उन्हें आत्मकथा में राजनीति के अप्रिय प्रसंगों को दर्ज करने से रोक देता है? सवाल यह भी है कि क्या हमारे समाज की मानसिकता उस हद तक परपिक्व हो पाई है, जिसमें उसे राजनेताओं को उनकी पारिवारिक या सार्वजनिक गलतियों को स्वीकारने के बाद उन्हें माफी दी जा सके? क्या नेता अपनी जिंदगी के सिर्फ उन पहलुओं को सार्वजनिक करना चाहते हैं, जिन्हें भारतीय समाज में आज तक नितांत निजी माना जाता है? पश्चिम में रही है परंपरा विदेशों में तो सक्रिय राजनेताओं की आत्मकथा या पॉलिटिकल और प्राइवेट ऑटोबॉयोग्राफी लिखने की लंबी परंपरा है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अगर हम पिछले पांच सालों को ही लें तो कई महत्वपूर्ण विदेशी नेताओं की आत्मकथाएं सामने आई हैं। ब्रिटेन के प‌रू्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की आत्कथा जर्नी को छपकर आए दो साल ही हुए हैं। ब्लेयर को आत्मकथा लिखने के लिए प्रकाशक ने बतौर एडवांस पांच मिलियन पौंड की धनराशि दी थी। ब्लेयर की आत्मकथा हिट रही। उसके प्रकाशन के महीनेभर के भीतर ही एक लाख प्रतियां बिकने की रिपोर्ट आई थी और प्रकाशक को चार हफ्ते में छह रिप्रिंट करने पड़े थे। इसके अलावा उनके सहयोगी एल्सटर कैंपबेल और पीटर मैंडलसन की किताब द थर्ड मैन, लाइफ एट द हर्ट ऑफ न्यू लेबर भी आई थी। ये सभी सक्रिय राजनीतिक जीवन में थे। मैंडलसन की किताब तो कई हफ्तों तक बेस्ट सेलर रही थी। ब्लेयर ने तो अपनी आत्मकथा में अपने और चेरी के कई अंतरंग प्रसंगों का भी जिक्र किया है। एक प्रसंग है कि जब चेरी और टोनी क्वीन के स्कॉटिश कैसल, बालमोर में छुट्टियां बिताने जा रहे थे तो चेरी वहां गर्भ निरोधक नहीं ले जा सकी थीं, क्योंकि उन्हें इस बात की शर्रि्मदगी थी कि नौकर-चाकर इस तरह की चीजें उनके सामान में कैसे रखेंगे। नतीजा यह हुआ कि बालमोर में चेरी के गर्भ में उनकी चौथी संतान आ गई। क्या हमारे देश के राजनेताओं में इस तरह का साहस और समाज में उस तरह की समझदारी विकसित हो पाई है कि इस तरह के लेखन को सहजता से ले सकें? तकरीबन 700 पन्नों की इस आत्मकथा में ब्लेयर ने राजनीति में अपने प्रवेश से लेकर अपने समकालीन विश्व राजनेताओं के अलावा ब्रिटेन की अप‌रू्व सुंदरी प्रिंसेस डायना पर भी लिखा है। ब्लेयर के अलावा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आत्मकथात्मक संस्मरण लिखा, डिसीजन प्वॉइंट। लगभग 500 पन्नों की इस किताब में बुश अपने स्वभाव की तरह ही खास किस्म की आक्रामकता के साथ उपस्थित हैं। बुश ने इस किताब में अपने तमाम निर्णयों पर भी बेहद साफगोई से लिखा, लेकिन भारत का कोई सक्रिय राजनेता आत्मकथा लिखने की कोशिश नहीं करता है। अपने यहां अलग हैं हालात एक प्रकाशक मित्र ने बताया कि वह इंदिरा गांधी के बेहद करीबी रहे और बाद में सांसद बने एक नेता को लंबे समय से इस बात के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे हैं कि वह अपनी आत्मकथा लिखें या लिखवा ही दें, लेकिन उन्हें सफलता हासिल नहीं हो पाई। चंद्रशेखर के साथ भी कुछ ऐसा ही था। लोग लंबे समय तक उनकी आत्मकथा के लिए उनके पीछे पड़े रहे थे, लेकिन किसी को सफलता हाथ नहीं लग पाई। दरअसल भारत में नेताओं को उम्र के आखिरी पड़ाव तक अपने लिए संभावनाएं नजर आती रहती हैं और उन्हें लगता है कि अपने या किसी और के बारे में लिखने में जरा-सी भी चूक हुई तो करियर चौपट। जो नेता अपनी तमाम संभावनाएं खत्म मान लेते हैं वे ही संस्मरण या आत्मकथा लिख पाए हैं। इस मामले में हाल के वर्र्षो में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी अपवाद हैं। आडवाणी अब भारत के उन गिने-चुने नेताओं में बचे रह हए हैं जो लागातर नई से नई किताबें पढ़ते रहते हैं और अपने विचारों को ताजगी देते हैं। आडवाणी ने अपनी आत्मकथा उस वक्त लिखी और प्रकाशित करवाई जब वह अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थे। 2008 में जब उनकी आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ प्रकाशित हुई तो उस वक्त वह विपक्ष के शीर्ष नेता थे और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा और विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवार भी। बाबजूद इस संभावना के तमाम खतरे उठाकर उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। हालांकि अपनी आत्मकथा में कई विषयों को न छूने को लेकर उनकी आलोचना भी हुई, होनी भी चाहिए। आत्मकथा और उसके कंटेंट पर विवाद हो सकता है, बहस भी, लेकिन इस बात को लेकर तो उनकी तारीफ की ही जानी चाहिए कि उन्होंने राजनीति में सक्रिय रहने के बावजूद आत्मकथा लिखने का साहस तो किया। सोमनाथ चटर्जी जैसे साहसी, बेबाक और विद्वान नेता भी राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही अपनी आत्मकथा लिख पाए। कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह ने सक्रिय राजनीति के बेहद अंतिम दिनों में अपनी आत्मकथा लिखने की शुरुआत की थी, लेकिन उसके जो अंश किताब के छपने से पहले लीक हुए वे बेहद सुनियोजित थे। उसमें अर्जुन सिंह के राजनीतिक प्रतिद्वंदी पी.वी. नरसिंहाराव और नेहरू-गांधी परिवार को लेकर उनकी राय को जाहिर किया गया। अर्जुन सिंह की आत्मकथा में नरसिंहराव, राममंदिर विवाद से लेकर उनके कांग्रेस से अलग होने की बात कही गई है। अर्जुन सिंह ने यह आत्मकथा सियासी हाशिए पर चले जाने के बाद खुद को राजनीति में पुनर्जीवित करने के लिए लिखनी शुरू की थी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अर्जुन सिंह अपनी इस इस किताब के जरिये कांग्रेस आलाकमान को यह संदेश देना चाहते थे कि उनकी सेवा का फल कांग्रेस ने उन्हें नहीं दिया। उनकी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश को आलाकमान ने पंख न लगने दिए। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक आत्मकथा को हथियार बनाकर अर्जुन सिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने लिए कोई ठौर ढूंढ़ने की जुगत में थे। इस वजह से किताब के चुनिंदा अंश एक योजना के तहत लीक करवाए गए थे, ताकि आलाकमान पर दबाव बन सके, पर न तो अर्जुन सिंह को इसका लाभ मिला और न ही जीवित रहते उनकी किताब प्रकाशित हो सकी। जीवनी का खतरनाक चलन गांधी से लेकर नेहरू, मौलाना आजाद तक ने आत्मकथा लिखी, लेकिन अब के नेताओं से इस तरह की उम्मीद बेमानी है। इनमें न तो विजन ही दिखाई देता है और न लेखन को लेकर किसी तरह का उत्साह। आत्मकथा तो दूर की बात है। हां, एक नया चलन जरूर शुरू हो गया है, वह है जीवनी लिखवाने का। राजनेता किसी पद पर पहुंचे नहीं कि उनकी जीवनी सामने, फिर उम्र चाहे 40 की ही क्यों न हो। ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है। उनके मुख्यमंत्री बनते ही उनकी जीवनी बाजार में आ गई। उसी तरह राहुल गांधी की भी जीवनी बाजार में उपलब्ध है, नारायण राणे से लेकर सुशील कुमार शिंदे और सुरेश कलमाडी तक की जीवनियां मिल जाएंगी। लेकिन वे सवाल अब भी अनुत्तरित हैं जिन्हें लेकर यह बहस शुरू हुई थी। क्या हमारे नेताओं में पश्चिम के नेताओं की तरह का साहस कभी आ सकेगा कि वे अपनी आत्मकथा और अपनी जिंदगी के अच्छे-बुरे पड़ावों को सार्वजनिक कर सकें। अगर ऐसा हो सके तो भविष्य की पीढ़ी को अपने देश के नेताओं को जानने में मदद हो सकेगी। नहीं तो अनधिकृत जीवनियों की बाढ़ में तथ्यों के बह जाने का खतरा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Dainik jagran Nation Edition 14-10-2012 राजनीति Pej-9

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