Saturday, October 13, 2012

जनतांत्रिक राजशाही



देश की राजनीति में इस समय जो कुछ हो रहा है वह राजशाही के दिनों की याद दिलाता है। राजशाही में राजा और उसके परिवार के लोग कानून से ऊपर होते हैं। कानून आम जनता के लिए होता है। भारत में नेहरू-गांधी परिवार को अघोषित तौर पर राज परिवार का दर्जा हासिल है। उनके खिलाफ कुछ बोलना एक बड़े षड्यंत्र के हिस्से के तौर पर देखा जाता है। इस लिहाज से अरविंद केजरीवाल-प्रशांत भूषण और उनके साथियों ने अनुचित काम किया है। इसकी माफी कांग्रेस और उसकी सरकार के संविधान में नहीं हो सकती। ऐसे समय जब देश का कानून मंत्री कह रहा हो कि वह सोनियाजी के लिए जान दे सकता है, केजरीवाल और उनके साथी सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं। पूरी सरकार बिना किसी जांच के वाड्रा के बचाव में उतर आई है। आरोपों का जवाब देने के बजाय अरविंद और उनके साथियों की नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कांग्रेस बार-बार इस सच्चाई को भूल जाती है कि आम आदमी कानून की बारीकियों की बजाय नैसर्गिक न्याय की अपनी समझ के आधार पर फैसला लेता है। पहले बात करते हैं अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के इरादे या नीयत की जिस पर कांग्रेस लगातार हमला कर रही है। अरविंद और उनकी संस्था इंडिया अगेंस्ट करप्शन अब एक राजनीतिक दल बन गया है। जाहिर है कि अब उनकी नजर अपने राजनीतिक फायदे की ओर भी है। उनके ऐसा सोचने में कोई कानूनी या नैतिक समस्या नहीं है। दूसरे राजनीतिक दलों और खासतौर से कांग्रेस को इस संगठन के राजनीतिक दल बनने से खुशी ही हुई थी। उन्हें लगा कि चलो अब बराबरी पर आ गए हैं। यह भी कि अब इस नई पार्टी को भी राजनीति के उन्हीं तकाजों से रूबरू होना पड़ेगा जिससे दूसरे राजनीतिक दल जूझ रहे हैं, लेकिन इस नवजात पार्टी के लोगों ने एक नई बात की है। उन्होंने राजनीतिक दलों के बीच एक अघोषित समझौते को तोड़ दिया है। समझौता यह है कि राजनीतिक दलों के नेताओं के परिवार के लोगों पर आरोप नहीं लगाएंगे। यही वजह है कि 2011 में जब पहली बार राबर्ट वाड्रा के खिलाफ डीएलएफ से लेन-देन की खबर आई तो मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस मुद्दे को नहीं उठाया। लूट की छूट के इस समझौते में अरविंद और उनके साथियों ने पलीता लगा दिया है। उन्होंने राजनीति के बने हुए नियमों को तोड़ दिया है। इस समय निशाने पर भले ही कांग्रेस हो, पर परेशानी सभी दलों को है। महाभारत में एक प्रसंग है। द्रौपदी चीरहरण के बाद दुखी विदुर कश्यप ऋषि का हवाला देते हुए कहते हैं कि अपराध करने वाला पाप का आधा भागीदार होता है। पाप के एक चौथाई के भागीदार वे लोग होते हैं जो पाप करने वाले की मदद करते हैं और एक चौथाई के भागीदार वे होते हैं जो अपराध के मूक दर्शक होते हैं। भारतीय संस्कृति का डंका पीटने वाली भाजपा एक चौथाई पाप की भागीदार तो है ही। अरविंद और उनके साथी जो कर रहे हैं वह दरअसल मुख्य विपक्षी दल का काम है। सवाल है कि इस समय विपक्षी दल है कौन? सभी मुख्य राजनीतिक दल कहीं न कहीं सत्ता में हैं। सभी दलों के नेता अपने परिजनों के लिए कांग्रेस की ही तरह राजशाही का दर्जा चाहते हैं। दो मुख्य विपक्षी दलों भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों को अरविंद केसाथियों को मिल रहे जनसमर्थन के दबाव में वाड्रा मुद्दे पर मजबूरी में बोलना पड़ा। वामपंथी दलों को छोड़कर सभी दलों के नेताओं में बेचैनी है कि अगला शिकार कौन होगा। यही वजह है कि पार्टियों के बड़े नेता इस मुद्दे पर खामोश हैं। उन्हें लग रहा है कि अरविंद और उनके साथियों का साथ दिया और अगली बार निशाने पर हम आ गए तो? अरविंद की पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विकल्प बनेगी या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन जनमानस में इस समय राजनीतिक विपक्ष के रूप में उन्होंने अपने को स्थापित कर लिया है। निश्चित रूप से उन्हें इस बात का भी फायदा मिल रहा है कि उनका कोई इतिहास नहीं है और वर्तमान साफ-सुथरा है। कांग्रेस बोफोर्स के बाद सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। आम आदमी का हाथ उसके नेता के परिवार तक पहुंच गया है। एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी और एक व्यवसायी के बीच के लेन-देन के विवाद पर केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री जिस तरह बचाव में उतरे वह हैरान करने वाला है। किसी जांच से पहले ही देश के वित्त मंत्री और कानून मंत्री उन्हें पाक साफ बता रहे हैं। इसके बाद देश की कौन सी एजेंसी जांच करने की हिम्मत करेगी। आरोप के तथ्यों का कोई जवाब नहीं दे रहा है। डीएलएफ जो कह रही है और वाड्रा की कंपनियों ने रजिस्ट्रार आफिस में जो तथ्य दिए हैं दोनों मेल नहीं खाते। भ्रष्टाचार के हर आरोप पर कांग्रेस का एक ही जवाब है। आरोप लगाने वाले की नीयत पर सवाल उठाओ। फिर वह कैग हो या अरंविद केजरीवाल। इस पूरे विवाद पर वाड्रा के अलावा पूरी पार्टी और सरकार बोल रही है। सरकार चाहती तो यह कहकर विवाद से बच सकती थी कि यह एक कंपनी और व्यवसायी के बीच का मामला है, लेकिन यह एक डरी हुई पार्टी की सरकार है। इसे सारी दुनिया अपने खिलाफ षड्यंत्र करती हुई नजर आती है। कांग्रेस और उसकी सरकार को डर है कि अगर राबर्ट वाड्रा को नहीं बचाया तो सोनिया गांधी को कैसे बचा पाएंगे। वाड्रा के हटते ही सामने सोनिया गांधी होंगी। इसलिए कनीमोरी के खिलाफ जांच हो सकती है, दयानिधि मारन का इस्तीफा हो सकता है, सास को आदर्श सोसाइटी में फ्लैट देने पर अशोक च ाण को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ सकता है, पर राबर्ट वाड्रा के खिलाफ जांच भी नहीं हो सकती। अब यह कहने में हर्ज नहीं कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने बोफोर्स मामले के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी सदस्य को कठघरे में खड़ा कर दिया है। जनता में यह बात चली गई है। बोफोर्स के समय राजीव गांधी की सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई और आरोप नहीं लगा था। इस समय तो मनमोहन सिंह की सरकार भ्रष्टाचार के आरोप में गले तक डूबी हुई है। वाड्रा और डीएलएफ के बचाव में इस तरह उतरकर सरकार ने जांच से पहले ही अपने को कठघरे में खड़ा कर लिया है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 11-10-2012 Pej -8 राजनीति

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