Tuesday, October 16, 2012

भाजपा की जगह केजरीवाल



पिछले हफ्ते जब टीवी चैनल देश के सबसे महत्वपूर्ण दामाद के कारोबार में वित्तीय गड़बडि़यों का शोर मचाए हुए थे, अमेरिका में रह रहे मेरे एक मित्र ने एक दिलचस्प ट्वीट किया। उन्होंने लिखा अरविंद केजरीवाल को जल्द ही एक राजनीतिक सबक मिलेगा कि कोई राजनीतिक दल बनाना और उसे कायम रख पाना एक टीवी शो से कहीं ज्यादा मुश्किल काम है। रॉबर्ट वाड्रा पर केजरीवाल की ओर से लगाए गए आरोपों को शक के घेरे में लाया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि इन्हें गंभीरता से लिया गया। सभी जानते हैं कि इसकी तब तक कोई गारंटी नहीं कि जोर-शोर से लांच किया गया उत्पाद सफल होगा ही जब तक कि यह लोगों की मांग पर खरा न उतरता हो और विश्वसनीय न हो। मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल और उनके साथी, जिन्होंने राजनीति में दखल देने का फैसला किया है, आने वाले समय के अपने लंबे सफर से वाकिफ नहीं होंगे। उन्हें यह भी मालूम होगा कि पैदा होते ही शोर मचाने से पहचान नहीं मिल जाती है। केजरीवाल की पार्टी का भविष्य बहस का विषय हो सकता है। उनके कार्यकर्ता जनलोकपाल बिल को लेकर एकमत हैं, लेकिन इसके अलावा लोकनीति के बड़े सवालों पर विरोधाभास ही दिखाई देते हैं। हां, अन्ना हजारे के साथ मंच साझा करने वाले कुछ लोग जरूर एक मुद्दे पर चले अभियान को एक वैकल्पिक दिशा देकर अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं। हालांकि केजरीवाल के आंदोलन में विरोधाभासों का उभरना भविष्य पर निर्भर करता है, लेकिन आज ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनता के बीच की गई इस वाइल्ड कार्ड एंट्री ने सियासी हलके में खलबली मचा दी है। कांग्रेस के वफादारों की बेचैनी समझ में आती है। सलमान खुर्शीद का अपनी नेता के लिए जीवन कुर्बान कर देने का प्रस्ताव और रेणुका चौधरी का टीवी पर असाधारण प्रदर्शन इसके गवाह हैं। आखिर रॉबर्ट वाड्रा कोई साधारण कारोबारी तो हैं नहीं। वह गांधी परिवार से ताल्लुक रखते हैं और एसपीजी सुरक्षा की विशेष हैसियत रखते हैं। सबूतों के साथ उनसे भिड़ने का मतलब है सीधे सोनिया गांधी से टकराना, जिन्होंने अपने लिए मदर इंडिया की छवि गढ़ी है। किसी भी विकसित लोकतंत्र में इस तरह के खुलासों का परिणाम बड़ी संख्या में इस्तीफों और राजनीतिक जीवन से संन्यास के रूप सामने आना चाहिए, लेकिन भारत जैसे बनाना रिपब्लिक (जैसा कि रॉबर्ट वाड्रा ने कहा) में वाड्रा खुद पर आरोप लगाने वालों का ही उपहास उड़ाते दिखाई देते हैं। शीर्ष कैबिनेट मंत्री तक उन्हें भलाई का प्रमाणपत्र जारी करते घूम रहे हैं। और तो और प्रधानमंत्री तक जनता में भ्रष्टाचार को लेकर फैल रही नकारात्मकता को दोष दे रहे हैं। यदि कांग्रेस सामने आ रहे सबूतों के बावजूद बेशर्मी पर उतारू है तो यह उसकी स्वभावगत विशेषता है और इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। हां, इस बात पर आश्चर्य जरूर हो सकता है कि इस खुलासे से मुख्य विपक्षी दल तक भौंचक्का रह गया। इसे विपक्ष के दायरे में किसी बाहरी व्यक्ति के अनाधिकार प्रवेश के खिलाफ उपजे विद्वेष से समझा जा सकता है। दिल्ली में बिजली की बढ़ी हुई दरों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन के दौरान विजय गोयल का धमकना इसी की गवाही देता है। केजरीवाल के राजनीति के दलदल के दरवाजे तोड़कर उसमें घुसने की एक पृष्ठभूमि है। आदर्श स्थिति तो वह होती जब वाड्रा पर यह बहस मार्च 2011 में ही शुरू हो जाती। तब एक अखबार ने अपनी रिपोर्ट में वाड्रा की डीएलएफ से नजदीकियों और उनके कारोबार की बड़ी सफलता के प्रति चेताया था। उस वक्त भाजपा में अरुण जेटली और यशवंत सिन्हा सरीखे बड़े नेता इस मुद्दे को संसद से सड़क तक उठाना चाहते थे। उनके पास वे तमाम विवरण थे जो केजरीवाल ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया के सामने पेश किए थे। भाजपा को इस सवाल का जवाब देने की जरूरत है कि पार्टी नेतृत्व ने यह निर्णय क्यों लिया कि राजनेताओं के बच्चों को राजनीतिक हमलों से छूट मिलनी ही चाहिए? यह भाजपा का कोई अवसर चूक जाने का विलाप नहीं है। सभी जानते हैं कि मुख्य विपक्षी दल संप्रग के अंतहीन घपलों-घोटालों पर उसे घेरने में इसलिए असफल रहा कि कहीं उसके अपने नेताओं पर कोई उंगली न उठ जाए। भाजपा संप्रग सरकार को भ्रष्टाचार पर इसलिए पूरी तरह नहीं घेर पाई, क्योंकि खुद उसके नेता भ्रष्टाचार में लिप्त थे। उन्होंने कांग्रेस के साथ राजनीतिक इक्विटी के लाभांश को बांटने का एक सुविधाजनक समझौता कर लिया और अपना विपक्ष धर्म ही त्याग दिया। वाड्रा को घेरने का मतलब है गांधी परिवार पर उंगली उठाना। यह बात राजनीतिकरण की शिकार जांच एजेंसियों पर भी उतनी ही लागू होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत से भाजपा नेता अच्छे दिनों के लौटने का इंतजार करते हुए थक गए हैं, जिनका अपना दामन साफ नहीं है। उन्होंने इस हद तक समझौता कर लिया है कि उनका विपक्ष सरकार के घोटालों पर कोई ध्यान ही नहीं देगा। इस सड़ी-गली व्यवस्था में उनकी भागीदारी इतनी है कि उन्होंने इस गंदगी को साफ करने के लिए चुनौती देने का नैतिक अधिकार खो दिया। वे खुद इस समस्या का हिस्सा बन चुके हैं। हो सकता है कि केजरीवाल लोकप्रियता के भूखे हों, लेकिन वह एक निडर शख्स के तौर पर उभरकर सामने आए हैं। ऐसा शख्स जिसने देश के पहले परिवार की शक्ति को चुनौती देने के लिए ललकारा है। यदि वह अपनी इसी बेबाकी और निडरता को कायम रखते हैं तो बहुत मुमकिन है कि उनकी पार्टी अच्छा खासा राजनीतिक दायरा हासिल करने में कामयाब हो जाए और वह शहरी भारत में बुराइयों से लड़ने के लिए एक प्रभावी व्यवस्था के तौर पर भी उभर सकते हैं। उनका एक ऐसे इलाके में अच्छा उठना-बैठना है जिसका झुकाव स्वाभाविक तौर पर भाजपा की ओर है। इसलिए यदि वह या उनकी पार्टी भाजपा के गढ़ से जीतने में कामयाब हो जाती है तो भाजपा अपने नैतिक पतन का दोष किसी और को नहीं, बल्कि सिर्फ खुद को ही दे सकती है। भाजपा ने व्यापक जनहित के प्रति अपने समर्पण की मूल भावना को ही गलत दिशा में मोड़ दिया है। अब उसे एक उद्देश्य के साथ क्षतिपूर्ति करने के लिए सबसे पहले अपने ही गंदे तंतुओं को खुद से दूर करना होगा। भारत आज एक बेहतर सरकार चाहता है और देशवासी इसके लिए जरूरी हर योग्यता पर खरे उतरते हैं। इसके साथ ही जनमानस की मांग एक साफ-सुथरे विपक्ष की भी है। भारत बेहतर के लिए बदलाव चाहता है और यह बदलाव समय की मांग है।

Dainik Jagran National Edition 15-10-2012 jktuhfr) Pej-8

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