सत्ता की राजनीतिक चालबाजी राजनीति और राजनीतिक चालबाजी, दो अलग-अलग चीजें हैं। एक सरकार चलाने की कला है तो दूसरी महज वोटों की हेराफेरी। भारत में
अभी जो कुछ चल रहा है वह राजनीतिक चालबाजी है। इसका बस एक मकसद है कि किस तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार को हटाने के लिए पर्याप्त
वोट का जुगाड़ कर लिया जाए। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेना विपक्ष को भगवान की ओर से भेजा गया अवसर दे गया है। चूंकि
मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अधिसूचना जारी कर सरकार आगे बढ़ चुकी है इस कारण सुधारों को लेकर बातें मोलतोल के दायरे
से बाहर हो चुकी हैं। यह भी साफ है कि कांग्रेस यह हिसाब लगा चुकी थी कि वह सुधारों के सवाल पर बहुमत जुटा लेगी। इसका मतलब हुआ कि यदि मुलायम
सिंह यादव की समाजवादी पार्टी अगर अपने 22 सदस्यों के साथ कांग्रेस को बाहर से
दिए जा रहे समर्थन को वापस लेने का फैसला कर ले तो भी अपने 21 वोटों के साथ मायावती की बहुजन समाज पार्टी या फिर अपने कम वोटों के साथ छोटी पार्टियां मनमोहन
सिंह की सरकार बचा लेने को
तैयार हैं। भाजपा की ओर से
हो रहे जबर्दस्त विरोध को समझा जा सकता है, लेकिन मुलायम सिंह यादव समेत विपक्ष के कई दल किसी ऐसे गठबंधन में शामिल होने को तैयार नहीं हैं जिसमें भाजपा भी हो। भाजपा ने
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर अपने स्टैंड को खुद हलका कर लिया है और अब वह सरकार को यह याद दिलाने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाना चाहती है कि
तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सदन को भरोसा दिलाया था कि इस मसले पर निर्णय लेने के पहले पर संसद की राय ली जाएगी। वास्तव में प्रणब
मुखर्जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है। उन्हें तय करना है कि अगर और जब कभी लोकसभा में कांग्रेस पराजित होती है, तो किस पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाना होगा। 205 सदस्यों वाली कांग्रेस के बाद 114 सदस्यों वाली भाजपा का नंबर आता है। यह कल्पना करना कठिन है कि राष्ट्रपति इसे सरकार बनाने के लिए
कहेंगे। फिर मुलायम सिंह यादव,
चंद्रबाबू नायडू और वाम दलों को लेकर तीसरा मोर्चा भी सामने आ चुका है। अवसर आने पर यह मोर्चा भी
अपना दावा रखेगा। यह सही है कि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के पास 154 सदस्य हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव भी कई दूसरी पार्टियों के समर्थन का दावा कर
रहे हैं। जब तक कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं होगा तब तक कई तरह से जोड़-घटाव होते रहेंगे। राष्ट्रपति के सामने यह तय करने की स्थिति आ
सकती है कि वह संसद के शीतकालीन सत्र तक कांग्रेस को सत्ता में बने रहने को कहें या फिर इसके उत्तराधिकारी की तलाश शुरू करें। विपक्ष
एकजुट नहीं है और अगर राष्ट्रपति इसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं तो वह बहुमत के लिए सदस्यों की सूची पेश करने की स्थिति में नहीं है।
भारत-बंद एक निरर्थक प्रयास था। अब आर्थिक मोर्चे पर अपना जोर दिखा रही मनमोहन सिंह सरकार को चुनौती देने वाला कोई ताकतवर विकल्प उभरता नहीं दिख रहा।
मध्यावधि चुनाव पर बहस समझने वाली बात है, क्योंकि जब विपक्ष की तमाम बंदूकें
गरज रही हों, अल्पमत की सरकार सही तरीके से काम नहीं कर सकती। राजनीतिक सहमति के बगैर
देश जरा भी आगे नहीं बढ़
सकता। भारत बंद के दौरान दिखा कि अभी तो कांग्रेस के सहयोगी दल भी पूरी तरह साथ नहीं हैं। भाजपा के रुख से पता चलता है कि
वह संसद के शीतकालीन सत्र या
इसके आगे के सत्र को भी चलने नहीं देगी। दूसरे शब्दों में कांग्रेस के पास विकल्प है कि वह या तो जनता का प्रतिनिधित्व
करने वाली संसद की इजाजत के
बिना सत्ता में बनी रहे या फिर जनता के पास जाकर फिर से जनादेश हासिल करे। हालांकि अवसरवाद दुर्भाग्यपूर्ण है,
लेकिन ऐसी स्थितियों में यह पूरी तरह तर्कसंगत बन गया है। बिहार का उदाहरण ले लें।
यह अनोखा राज्य है,
जिसने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया है,
लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गला-फाड़ अंदाज में कह रहे हैं कि सिर्फ अपने
आकार के बूते यानी 543
सदस्यों वाली लोकसभा में अपने 40 सदस्यों के बल पर राज्य को अपनी सभी मांगें पूरा करा लेने का पूरा-पूरा अधिकार है। दूसरों के मुकाबले समझदार नीतीश कुमार भी अपनी या फिर
राज्य की महत्वाकांक्षाओं को दबा नहीं पा रहे। संकट भरी राजनीति की घड़ी में जब लोकसभा का प्रत्येक सदस्य मायने रखता हो, उन्हें भरोसा हो चला है कि बिहार की सीटें भविष्य में संसद और राजनीतिक दलों की तस्वीर बना-
बिगाड़ सकती हैं। मेरा विरोध नीतीश कुमार की मांग को लेकर है। संविधान में कई अनुच्छेद हैं, जिनके आधार पर जम्मू-कश्मीर तथा पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा मिला है। अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिला
है तो मेरे लिए यह आश्चर्य भरा होगा। वास्तव में सभी
राज्यों को विशेष दर्जे की जरूरत है। केंद्र को सिर्फ चार विभागों-प्रतिरक्षा, विदेशी
मामले, संचार और मुद्रा को रखकर बाकी सभी राज्यों के हवाले कर देना चाहिए। राज्य जनता
के ज्यादा करीब होते हैं और उनकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज की स्थिति में जो कुछ करने की जरूरत है उसमें लोकपाल एक बहुत ही
महत्वपूर्ण उपाय साबित हो सकता है, लेकिन जब सारा
ध्यान सत्ता हथियाने में लगा हो तो जनता का इस्तेमाल महज एक हथियार के रूप में होता है। जब तक सत्ता के अलावा देश की किसी
और चीज में रुचि नहीं रखने
वाले तत्वों से छुटकारा नहीं पा लिया जाता तब तक भारत को ऐसी ही स्थिति में रहना होगा। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
Dainik Jagran
National Edition 3-10-2012 Rajneeti Pej -8
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