रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ लगे आरोपों को
दमदार मानते हुए स्वतंत्र एजेंसी से उनकी जांच की जरूरत जता रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश कांग्रेस की बड़ी
मुसीबत पिछले सप्ताह जब इंडिया अगेंस्ट
करप्शन (आइएसी) ने संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगाया कि उन्होंने 50 लाख रुपये के निवेश से पांच साल में 500 करोड़ रुपये बना
लिए तो केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों में अपनी वफादारी दिखाने की होड़ लग गई। अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण की प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद केंद्रीय
मंत्रियों में एक टीवी चैनल से
दूसरे में जाने की भगदड़ मच गई और कुछ ने मीडिया को संबोधन के माध्यम से अपनी सक्रियता प्रदर्शित की। इन सब नेताओं की
दलीलों में एक बात समान थी कि रॉबर्ट
वाड्रा एक उद्यमी हैं और भारत के अन्य नागरिकों की तरह उन्हें भी अपनी पसंद का कोई भी व्यापार करने की छूट है। सलमान
खुर्शीद जैसे कुछ मंत्रियों ने
राजनीतिक और कानूनी रूप से संतुलित बात रखी, जबकि अन्य मंत्रियों ने
फैसला किया कि सुरक्षा की सबसे अच्छी रणनीति आक्रमण है। उन्होंने आइएसी सदस्यों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर ऊल-जुलूल
टिप्पणियां की। हालांकि वाड्रा के
बचाव में सरकार द्वारा मंत्रियों की फौज खपा देने के बावजूद उनका कुछ भला नहीं हुआ। अगर वाड्रा केवल एक व्यक्ति
मात्र हैं तो इतने सारे मंत्री
एक व्यक्ति को बचाने में इस कदर उतावले क्यों हो रहे हैं? मान लें कि वह पार्टी के प्राथमिक सदस्य हैं तो कांग्रेस एक
सामान्य सदस्य के बचाव में अपने
तमाम पुरोधाओं को क्यों उतार रही है? क्या इस आलोक में कांग्रेस यह
उद्घोषणा कर रही है कि वह एक राजवंश द्वारा संचालित है? सत्तारूढ़ राजवंश के दामाद द्वारा भारी-भरकम संपदा अर्जित
करने के संबंध में आइएसी के खुलासे
से अनेक सवाल उठते हैं। पहला आरोप यह है कि पिछले चार साल के दौरान रॉबर्ट वाड्रा प्रॉपर्टी खरीदने के अभियान पर
लगे हुए हैं और वह एनसीआर में कम
से कम 31 प्रॉपर्टी खरीद चुके हैं। खरीद के समय भी
इनकी कीमत सैकड़ों करोड़ रुपये थी। दूसरा
आरोप है कि 1 नवंबर, 2007 तक रॉबर्ट वाड्रा और उनकी
मां ने केवल 50 लाख रुपये निवेश किए थे और तीन साल के अंदर-अंदर इस राशि से तीन सौ करोड़ रुपये की संपत्ति खरीद ली, जिसकी अब कीमत पांच सौ करोड़ रुपये है। रॉबर्ट वाड्रा और उनकी मां ने रियल एस्टेट
के व्यापार में इतनी भारी सफलता कैसे
हासिल की? इसी से तीसरा आरोप जुड़ा हुआ है कि डीएलएफ कंपनी ने रॉबर्ट वाड्रा को 65 करोड़ रुपये ब्याजमुक्त ऋण के रूप में दिए और इस रकम से वाड्रा ने डीएलएफ की संपत्तियां
सस्ती दरों पर खरीद लीं। दूसरे
शब्दों में डीएलएफ ने अपनी ही संपत्तियों को खरीदने के लिए वाड्रा को ऋण दिया। यही नहीं कंपनी ने बाजार कीमत से काफी कम
दामों में रॉबर्ट वाड्रा को प्रोपर्टी बेची। साठगांठ और अनियमितताओं की आशंका के चलते इन सौदों की जांच की
जरूरत है। यह मामला तब और मजबूत
हो जाता है जब आइएसी आरोप लगाता है कि हरियाणा सरकार ने डीएलएफ को मंगोलिया परियोजना के लिए 350 एकड़ जमीन आवंटित की थी। इसी परियोजना में वाड्रा के सात अपार्टमेंट हैं। क्या इन्हीं
अनुचित लाभों के कारण डीएलएफ ने
वाड्रा को ब्याज मुक्त ऋण देकर सैकड़ों करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाया। इससे भी अधिक विचलित करने वाला आइएसी का यह
आकलन है कि पांच सौ करोड़ रुपये का लाभ तो बस ऊंट
के मुंह में जीरे के समान है। वाड्रा ने 2012 में छह और नई कंपनियों का गठन किया है
और इनमें भारी मात्रा में काला धन निवेश
किया गया है। इस धन का Fोत क्या है? आइएसी का कहना है कि प्रथम दृष्टया ये सौदे भ्रष्टाचार रोधी कानून और आयकर कानून के दायरे में आते हैं? किसी भी सूरत में
इन आरोपों की एक स्वतंत्र एजेंसी से जांच कराए जाने की जरूरत है। केजरीवाल और प्रशांत भूषण के आरोपों के एक दिन बाद डीएलएफ ने एक बयान जारी कर दावा किया कि रॉबर्ट वाड्रा के साथ किए गए ये सौदे पूरी
तरह पारदर्शी हैं। हालांकि
डीएलएफ की सफाई ने ही कुछ नए सवाल खड़े कर दिए हैं। डीएलएफ का कहना है कि उसने वाड्रा को असुरक्षित ऋण नहीं दिया। कंपनी ने
तो वाड्रा को 50 करोड़ रुपये का व्यापार ऋण दिया, जब उन्होंने कंपनी की ही 3.5 एकड़ जमीन 58 करोड़ रुपये में खरीदने का फैसला किया। दूसरे शब्दों में, आइएसी जिसे असुरक्षित ऋण बता रहा है वह डीएलएफ की नजर में व्यापार अग्रिम है। हालांकि इससे वाड्रा के लिए मामला और उलझ जाता है, क्योंकि उनकी कंपनी की बैलेंस शीट कुछ और ही कहती है। दो दिन बाद रॉबर्ट वाड्रा ने मुंह खोलने का फैसला लिया। उन्होंने दावा किया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप
सफेद झूठ, पूरी तरह निराधार और मानहानि करने वाले हैं। हालांकि उन्होंने एक
भी आरोप का जवाब नहीं दिया। अगर रॉबर्ट वाड्रा के
आक्रोशित प्रतिकार से कुछ मतलब निकलता है तो महज यह कि इससे स्वतंत्र जांच की मांग और मजबूत होती है। स्टूडियों के चक्कर काट रहे केंद्रीय मंत्री रॉबर्ट वाड्रा की
इन आरोपों से बचाने में कोई
सहायता नहीं कर सकते। ये आरोप संप्रग के गले की हड्डी बन गए हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन के पास इन आरोपों की धार कुंद करने के
लिए उम्मीद की एक हल्की-सी किरण बस यही बची है कि
वह उच्च न्यायाधीश से निष्पक्ष जांच कराने पर तैयार हो जाए। अगर इसके पास ऐसी जांच कराने के साहस का अभाव है, तो इसे स्मरण होना चाहिए कि अकसर दामाद के रूप में ही प्रतिफल
मिलता है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
Dainik Jagran National Edition, 13-10-2012 राजनीति PeJ-8
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