भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अन्ना हजारे की कोर कमेटी के सदस्य रहे मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह और गांधीवादी पीवी राजगोपाल ने अब इस कमेटी से इस्तीफा दे दिया है। राजेंद्र सिंह का कहना है कि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल तानाशाह है और यह आंदोलन दलगत राजनीति की गलत दिशा में जा रहा है। राजेंद्र सिंह का यह भी कहना है कि इन दोनों को यह समझ आना चाहिए कि लाखों लोग अन्ना और केजरीवाल के लिए नहीं आए थे, वे देश में भ्रष्टाचार रोकने के लिए जमा हुए थे। इधर, एक अखबार में प्रकाशित खबर में किरण बेदी की हवाई यात्राओं को लेकर भी खुलासा किया गया है। इस खबर के मुताबिक किरण बेदी को 1979 में राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार मिला था और वर्ष 2001 के सरकारी दिशा-निर्देशों के मुताबिक वीरता पुरस्कार से सम्मानित सभी लोग एयर इंडिया के इकोनॉमी क्लास के किराये में 75 फीसदी छूट के हकदार हैं। अखबार का कहना है कि किरण बेदी जिन सेमिनार और आयोजनों में शामिल होती हैं, उन संस्थाओं से हवाई यात्रा किराया बिजनेस क्लास श्रेणी का लेती हैं, जबकि यात्रा इकोनॉमी क्लास में रियायती टिकट पर करती हैं। हालांकि किरण बेदी का कहना है कि ऐसा करने से उन्हें कोई निजी फायदा नहीं हुआ है और इकोनॉमी क्लास में यात्रा करके जो पैसा बचता है, वह उनकी गैर सरकारी संस्था के खाते में जाता है। अभी कुछ दिनों पहले कोर कमेटी के सदस्य प्रशांत भूषण ने कश्मीर में जनमत संग्रह को लेकर अपना विवादास्पद बयान दिया। अरविंद केजरीवाल जोश में आकर अन्ना हजारे को संसद से ऊपर बता चुके हैं। कुल मिलाकर कुछ लोगों के बड़बोलेपन और आंदोलन को मुद्दों से हटकर व्यक्ति विशेष पर केंद्रित करने की वजह से आज देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ किया गया बड़ा आंदोलन सही दिशा में बढ़ता दिखाई नहीं दे रहा। वैसे तो टीम अन्ना शब्द अपने आप में सवालों के घेरे में है। चंद मुट्ठीभर लोगों ने अन्ना के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया और तैयार हो गई टीम अन्ना। आज भी अन्ना हजारे जैसी शख्सियत की नीयत पर किसी को भी शक नहीं है। अन्ना के अनशन की वजह से कई बार भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को अपना पद छोड़ना पड़ा है। अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों की नीयत पर भी सवाल नहीं खड़े किए जा सकते, लेकिन देश का असली मसला अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की समस्या है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आप देश की सबसे बड़ी समस्या से लोकतांत्रिक मर्यादाओं में रहकर किस तरह निपटते हैं? क्या टीम अन्ना के बड़बोलेपन की वजह से देश में भ्रष्टाचार का मसला हाशिए पर आता दिखाई नहीं दे रहा है? भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किसी टीम अन्ना का आंदोलन नहीं, बल्कि देश की जनता का आंदोलन था और इसे जनता का आंदोलन ही बनाए रखना चाहिए था। आजादी के बाद से अब तक देश की जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त रही है। महंगाई और भ्रष्टाचार की दोहरी मार झेल रही जनता को इस आंदोलन से उम्मीद की किरण दिखाई दी और इसके चलते ही इंडिया अगेंस्ट करप्शन की मुहिम के समर्थन में जनसैलाब उमड़ पड़ा। इंडिया अगेंस्ट करप्शन की मुहिम को अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर, मेहमूद मदनी, सैयद रिजवी, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी जैसे कई लोगों ने शुरू किया था, लेकिन कुछ ही दिनों में चंद लोगों ने इस आंदोलन को अन्ना आंदोलन बना दिया और यही वजह है कि टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल अब अन्ना को संसद से ऊपर बता चुके हैं। एक तरफ अरविंद केजरीवाल अन्ना को संसद से ऊपर मानकर चल रहे हैं तो दूसरी तरफ उनके प्रमुख सहयोगी प्रशांत भूषण कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का राग अलाप रहे हैं। हालांकि अन्ना ने अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के इन बयानों पर नाराजगी जताई है। प्रशांत भूषण के जनमत संग्रह वाले बयान पर अन्ना का कहना है कि मैं हर उस आदमी का विरोधी हूं, जो देश को तोड़ने की बात करता है। अन्ना का यह भी कहना है कि अब हमारी कोर कमेटी इस मसले पर विचार करेगी कि प्रशांत भूषण को टीम में रखना है या नहीं। यह बात ठीक है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती और जनता को जागरूक करने की दिशा में उनकी पहल की भी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन इस पूरे आंदोलन को व्यक्तिवादी आंदोलन बनाने में इन लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अन्ना के अनशन के वक्त किरण बेदी ने मंच से नारा दिया था कि मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना। यह बात सही है कि सादगी, सरलता और ईमानदारी से भरा अन्ना का व्यक्तित्व देश के युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत है, लेकिन फिर भी इस आंदोलन को अन्ना केंद्रित बना देना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं था। इसमें कोई दो मत नहीं कि कांग्रेस की अगुवाई में देश में संप्रग की सरकार है और अगर सरकार चाहे तो एक ऐसा प्रभावी लोकपाल बिल लाया जा सकता है, जिससे देश को काफी हद तक भ्रष्टाचार से निजात मिल सके। लेकिन हम यह देख चुके हैं कि इस मसले पर लगभग सभी पार्टियों ने बहुत दिनों तक चुप्पी साधी हुई थी। जनलोकपाल बिल को लेकर टीम अन्ना कांग्रेस से नाराज है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को अन्ना हजारे वोट बैंक की यात्रा बता रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि राजनीतिक फायदे के लिए सारे राजनीतिक दल कमोबेश एक जैसे ही हैं, लेकिन ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में हम किसी एक राजनीतिक दल के खिलाफ जाकर उसे चुनाव में हराने की अपील तभी करें, जब हम कोई दूसरा विकल्प जनता के सामने लेकर आ रहे हों। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अन्ना और संघ के रिश्तों की चिट्ठियां सामने लेकर आ रहे हैं और खुद अन्ना हजारे और उनसे जुड़े लोग इस पूरे मसले पर सफाई देने में जुटे हैं। संघ की नीतियों से आप भले ही इत्तेफाक नहीं रखते हों, लेकिन अगर भ्रष्टाचार को लेकर संघ या कोई भी संगठन आपके साथ खड़ा हो तो इसमें आपको सफाई देने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? दिल्ली के रामलीला मैदान पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को जिस तरह से जनसमर्थन मिला था, जनता की उस ताकत को अन्ना से जुड़े लोग सही दिशा नहीं दे सके। जनलोकपाल बिल को लेकर भी जनता को जागरूक करना अपनी जगह बिल्कुल ठीक है, लेकिन हिसार उपचुनाव में जनता के बीच कांग्रेस को वोट नहीं देने की अपील करना अन्ना के सहयोगियों का हड़बड़ी में उठाया गया कदम लगता है। जस्टिस संतोष हेगड़े ने भी इस फैसले पर सवाल खड़े किए हैं। अन्ना 15 अक्टूबर से उत्तर प्रदेश के दौरे पर जाने वाले थे, लेकिन उन्होंने फिलहाल अपनी इस यात्रा को टाल दिया है और इसके साथ ही उन्होंने मौन व्रत पर जाने की भी घोषणा कर दी। दरअसल, बढ़ते भ्रष्टाचार को देखते हुए आज जरूरत इस बात की है कि देश की जनता को जागरूक किया जाए। उसे भ्रष्टाचार के आगे हथियार डालने की बजाय उससे लड़ना सिखाया जाए। लोगों को बताया जाए कि राशन कार्ड हो या स्कूल में दाखिला, अस्पताल में इलाज की बात हो या फिर ड्राइविंग लाइसेंस, कोई भी व्यक्ति एक पैसा भी रिश्वत नहीं देगा। किसानों के भीतर यह आत्मविश्वास पैदा किया जाए कि उन्हें उनकी फसलों का वाजिब दाम मिलेगा और इस काम में किसान किसी भी दलाल या बिचौलियों को बर्दाश्त नहीं करें। देश का जनमानस अगर जागरूक हो गया तो फिर कोई भी राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए जनता के साथ धोखा नहीं कर सकेगा और तभी देश में ऐसे आंदोलन सार्थक हो सकेंगे। मौन व्रत के बाद अन्ना को अपने साथियों को यह बात समझानी होगी कि देश में सकारात्मक परिवर्तन के लिए की जाने वाली कोई भी पहल या सुधार का कोई भी लक्ष्य देश के संवैधानिक ढांचे या लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तार-तार कर हासिल नहीं किया जा सकता। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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