16 नवंबर की दोपहर हिंदी सामना अखबार के
मुख्य सामचार का शीर्षक था, महाराष्ट्र बेचैन,
देश चिंतित। उसके नीचे खबर थी, उद्धव ठाकरे का शिवसैनिकों से आह्वान शांति रखो, संयम रखो।
सामान्यत: किसी नेता के मरणासन्न अवस्था
में पहुंचने या बाला साहेब ठाकरे की तरह बीमार पड़ने पर ऐसी खबरें नहीं दिखतीं। शिवसेना का मुखपत्र होने के कारण
इसमें अतिशयोक्ति की ुपूरी
संभावना है, पर यदि हम इन दोनों समाचारों को मिला
दें तो इनमें बाला साहेब का
अपना चरित्र, उन्हें लेकर राजनीतिक-सामाजिक
वर्र्गो की प्रतिक्रिया और
ठाकरे द्वारा उनके तरीकों से निर्मित शिवसेना का चरित्र भी स्पष्ट हो जाता है। ठाकरे की सेहत बिगड़ने के साथ ऐसा लगा
मानो मुंबई की सारी सड़कें केवल
ठाकरे निवास मातोश्री की ओर ही जा रही हों। राजनेताओं से लेकर अभिनेताओं, कारोबारियों,
सामाजिक कार्यकर्ताओं सभी का लक्ष्य मातोश्री। एक ओर यह स्थिति तो दूसरी ओर प्रशासन
में अनहोनी का भय और प्रदेश पुलिस, अर्धसैनिक बल सहित पूरे सुरक्षा
महकमे को चौकस कर दिया गया। इन तस्वीरों को मिलाकर निष्कर्ष निकालें। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब पूरी उम्र जीने के बाद मरणासन्न
अवस्था में पड़े व्यक्ति के
समर्थकों से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने का इतना खौफ होता हो कि पता नहीं अभी या उनके गुजरने के बाद ये क्या करेंगे। तमिलनाडु में जयललिता या करुणानिधि या कुछ अन्य नेताओं या
अभिनेताओं के समर्थक ऐसी स्थिति में शायद थोड़े ज्यादा भावुक हो जाएं और कुछ हिंसा कर बैठें। मुंबई में बंद जैसा माहौल। राष्ट्रपति प्रणब
मुखर्जी तक का दो दिवसीय महाराष्ट्र दौरा भी रद कर दिया गया। ऐसे अलग बनी शिव सेना सरकार की ओर से बयान आया कि गृह मंत्रालय प्रदेश पुलिस महानिदेशक से
लगातार संपर्क में है और
मुंबई के हालात पर नजर रखे हुए है। जैसे ही राज्य की ओर से और टुकडि़यां भेजे जाने की मांग आएगी सैन्य बलों को मौके
पर भेज दिया जाएगा। यही बाला
साहब ठाकरे और उनकी बनाई शिवसेना तथा अन्य संगठनों में मौलिक अंतर है। उन्होंने अपने संगठन का निर्माण ही कुछ इस तरह
किया और उसके सदस्यों के अंदर
ऐसी उत्तेजक वृत्ति भरी कि वे ज्यादा स्थिर, संयमित-संतुलित होकर सक्रिय नहीं रह सकते। शिवसैनिकों को तैयार ही इस तरह से किया गया जिसमें उनकी स्थिरता, उनके संयम और संतुलन की सीमाएं अत्यंत सिकुड़ गईं। हालांकि 1966 में शिवसेना की स्थापना से अगले लगभग
तीन दशक तक बाला साहेब द्वारा बनाए गए कार्यकर्ताओं की दो पीढ़ी गर्जन-तर्जन की उम्र पार कर चुकी है, इसलिए
पहले की तरह उनका सामूहिक रवैया नहीं होता। उद्धव की आवाज और
हावभाव में बाला साहेब की हनक भी नहीं,
इसलिए उस तरह उद्धत लोग नए सिरे से
तैयार नहीं हो रहे। फिर भी करीब साढ़े तीन
दशक का उनका पूरा प्रयाण प्रशासन को ऐसा सोचने के लिए विवश करता है। भारतीय राजनीति में बाला साहेब की यह ऐसी देन है जिसकी
सामान्यत: आलोचना की जाती है
और जिसे बौद्धिक समाज केएक बड़े हिस्से में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता, किंतु यही बाला साहेब एवं उनकी शिवसेना की शक्ति थी। यही वह मूल शक्ति है जिसकी बदौलत मुंबई और महाराष्ट्र
के बड़े हिस्से में उनकी बिजली कड़कती थी, फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सत्ता में रहें या न रहें। बाला साहेब ने राजनीति एवं बाहरी सार्वजनिक
जीवन में खुद के व्यक्तित्व को ऐसा प्रदर्शित किया, जो उनमें आम
नेताओं से अलग हर अवसर पर दहाड़ने वाला शेर नजर आए, जो ऐसे लोगों की
आवाज को आक्रमक उतुंगता दे जिन्हें लगता हो कि शासन व नेता या अन्य समूह-संस्था उनके, उनकी कौम, क्षेत्र, संस्कृति के साथ
अन्याय कर रहे हैं और इन्हें चुनौती की भाषा में प्रत्युत्तर देना जरूरी है। इसमें सामने वाले का सत्ताधारी
होना ही जरूरी नहीं है। बाला साहेब ने वामपंथी मजदूर संगठनों के विरुद्ध अभियान चलाया। उन्होंने मराठियों को समझाया कि ये मजूदर संघ और इनके
नेता आए दिन बंद, हड़ताल, प्रदर्शनों से मराठा राज्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। फिर इनके नेता बड़ी संख्या में गैर मराठी हैं। इस नाते वामपंथी
नेताओं और बुद्धिजीवियों की नजर में वह एक प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी,
उद्धत, बुर्जुआ, पूंजीवादी और कुल मिलाकर फासीवादी सोच और कर्म के व्यक्ति थे और उनका सारा क्रियाकलाप भी
इसी के ईर्द-गिर्द
घूमा करता था। बाला साहेब को
सोचने का तरीका यदि आप फासीवाद
की वामपंथी परिभाषा के दायरे में और प्रतिक्रियावाद, उद्धत विचारों की उनकी
सोच के इर्द-गिर्द विचार करेंगे तो उत्तर हां में आएगा। आखिर मुसोलिनी और हिटलर ने भी वामपंथी समूहों का पुरजोर विरोध
किया था और इसके लिए स्थानीय
संस्कृति, जाति, भूगोल और मजहब के भाव से उग्र राष्ट्रवाद का मनोभाव पैदा किया था। बाला साहेब का आरंभिक सन्स ऑफ द सॉइल
यानी भूमिपुत्र
सिद्धांत भी संकुचित उद्धत राष्ट्रीयता नजर आता है, जिसमें मारवाडि़यों,
दक्षिण के निवासियों और गुजरातियों के प्रति घृणा का भाव
भरा हुआ था। उन्होंने
लोगों के बीच यह संदेश दिया कि महाराष्ट्र से बाहर के लोग यहां आपका हक मार रहे हैं, व्यवसाय एवं नौकरियों में आपके ऊपर चले गए, इसलिए उन्हें बाहर खदेड़ो, मार भगाओ। इस तरह
के उग्र विचार के प्रचार और कार्रवाई की आक्रामक शैली का छोटा रूप पिछले छह सालों में उनके भतीजे राज ठाकरे में दिखा है। शिवसेना का गठन ही बाहर के राज्यों के लोगों के उग्र विरोध कर
उनको भगाने के उद्देश्य से
हुआ। उस संगठन का नाम अन्य राजनीतिक संगठनों की तरह न रखकर सेना दिया गया। यानी शिवाजी की सेना। हालांकि शिवाजी की
राष्ट्रीयता में हिंदुत्व
था, संकुचित क्षेत्रीयता नहीं, पर इतनी गहराई से सोचने की जहमत उठाए कौन। समूह इतनी गहराई से नहीं सोचता और बाला साहेब के
नेतृत्व ने अपने समर्थकों
में इतना गहरा आकर्षण पैदा किया कि वे केवल उनके कहे पर विश्वास पैदा करते थे। उनके सारे तर्क बाला साहेब से
आरंभ और वहीं खत्म होते थे। यानी शिवाजी की सेना की तरह टूट पड़ो। वह समय सत्ता से गहरी निराशा का था और औद्योगिक, व्यावसायिक प्रदेश होने के कारण इसके स्वाभाविक द्वंद्व उपलब्ध थे। इसका लाभ भी बाला साहेब को मिला। अपनी तरह के अकेले शख्स आप चाहे जितनी आलोचना कीजिए, लेकिन बाला साहेब एक फेनोमेना बन गए। वह भारत के अकेले शख्स हैं जिन्होंने कार्टूनिस्ट से
जीवन आरंभ कर एक आवाज पर कुछ भी कर गुजरने वालों की फौज खड़ी कर दी, जिसने उन्हें प्रदेश की बेताज बादशाहत प्रदान की। कहा जाता है कि बाल ठाकरे के राजनीतिक विचार उनके पिता से प्रेरित हैं, जो युनाइटेड महाराष्ट्र मूवमेंट के बड़े नेता थे। इस
आंदोलन के जरिये भाषाई तौर पर अलग
महाराष्ट्र बनाने की मांग हो रही थी। अपनी पत्रिका मार्मिक के जरिये बाल ठाकरे ने मुंबई में गुजरातियों,
मारवाडि़यों और दक्षिण भारतीय लोगों के बढ़ते प्रभाव के
खिलाफ मुहिम चलाई, लेकिन तब बाल ठाकरे की उम्र के अनेक
युवक थे जिनके पिता या दाया या कोई उस आंदोलन में शामिल था, पर वह तो अकेले
ही सामने आए। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि एक समय की क्षेत्रीयता आगे हिंदुत्व की आक्रामकता में परिणत हो गई और इसे स्वीकृति मिली। मराठी मानुष सम्राट
से हिंदू हृदय सम्राट तक का उनका सफर विस्मित करने वाला है। इसकी स्वीकार्यता के परिणामस्वरुप ही
मुंबई महानगरपालिका पर
लंबे समय से शिवसेना-भाजपा का अधिकार है, 1995 में दोनों दलों को
प्रदेश में बहुमत भी मिला तथा आज ये मुख्य विपक्षी गठजोड़ के रूप में कांग्रेस-राकांपा के मुकाबले खड़े हैं। बाहरी दुनिया में उनकी जितनी आलोचना हुई हो,
उनकी धाक खत्म नहीं हुई। सबसे बढ़कर उन्होंने जितने निजी संपर्क बनाए, जिनसे प्रेम या भय से संबंध बनाया वह तो और भी चमत्कारी है। जरा देख लीजिए, उनकी अचेतावस्था में जाने की सूचना मिलते ही मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण, गृहमंत्री आरआर पाटिल, राज्यपाल, दूसरे दलों के नेता शरद पवार,
छगन भुजबल, नितिन गडकरी,
गोपीनाथ मुंडे, रामदास आठवले जैसे लोग मातोश्री
पहुंचे। मुंबई फिल्म उद्योग से तो शायद ही कोई वंचित रहा हो। गायिका लता मंगेशकर ने रविवार को होने वाले
अपनी संगीत कंपनी का
उद्घाटन भी रद कर दिया। परिवार में भी वह सबसे चहेते थे। यह अलग बात है कि ठाकरे की विरासत उस रूप में संभालनी अत्यंत
मुश्किल है। उनका जाना सिर्फ
कहने के लिए नहीं, वाकई एक युग का अंत है जिसके पक्ष
एवं विपक्ष में बहुत
कुछ कहा हा सकता है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
Dainik Jagran
National Edition 19-11-2012 Page -8 राजनीतिक
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