राजनीति का एक भद्रपुरुष चला गया। इंद्र
कुमार गुजराल के निधन की खबर सुनी तो मन में पहला खयाल यही आया। धक्का भी लगा एक अच्छे मित्र को खो देने का। ऐसे मित्र जो अपने विरोधियों के साथ भी मित्रवत ही रहे। यही
उनके व्यक्तित्व की सबसे खास बात थी। उनका
व्यवहार हर किसी के साथ अच्छा रहा। यही कारण था कि उनका कोई दुश्मन नहीं था, विरोधी भले रहे हों। भद्रपुरुषों के विरोधी समाज में होते भी हैं, लेकिन गुजराल साहब को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उन्होंने कभी अपने व्यवहार में किसी के भी प्रति
कठोरता नहीं आने दी। यह गुजराल
साहब के व्यक्तित्व में निहित मित्रता का ही परिणाम था कि उन्होंने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित
किया, जो गुजराल डॉक्टि्रन कहलाया। यही उनके विदेश मंत्री रहते सबसे बड़ी उपलब्धि रही। गुजराल डॉक्टि्रन के पीछे उनकी यही सोच काम कर रही थी कि
हिंदुस्तान को यदि अपने पड़ोसी देशों से संबंध
सुधारने के लिए खुद चलकर एक मील भी आगे जाना पड़े तो उसे गुरेज नहीं करना चाहिए, ताकि दुनिया का उस पर भरोसा बढ़े। भारतीय राजनीति में गुजराल साहब का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने राजनीति को प्रेम और मेलजोल की भाषा दी। राजनीति में उनका सफर
नई दिल्ली नगर निगम के सदस्य से शुरू हुआ था।
फिर वह कांग्रेस के सदस्य बने। तब वह पाकिस्तान से आए थे। यह 1946 की बात है। उनके
पिता अवतार नारायण गुजराल ने तब लाहौर में अपना कारोबार शुरू किया था। इंद्र लाहौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे, लेकिन बंटवारे के बाद भारत आकर वह कांग्रेस में शामिल हो गए। इंदिरा गांधी के वह काफी करीबी थे। उन्हें गांधी
की किचन कैबिनेट का सदस्य कहा जाता था। 1975 में आपातकाल के दौरान उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय संभाला। इसी दौरान संजय गांधी के साथ
उनके रिश्तों में तल्खी आई। तब
उन्होंने संजय का आदेश न मानते हुए साफ शब्दों में उनसे कह दिया था कि, मैं तुम्हारी मां का मंत्री हूं, तुम्हारा नहीं। हालांकि उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा और उन्हें योजना आयोग में बैठा दिया गया, लेकिन इंदिरा
गांधी उनकी योग्यता को पहचानती थीं और उन्होंने गुजराल साहब को तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) का राजदूत नियुक्त कर
मास्को भेज दिया। वह भारतीय विदेश
सेवा के अधिकारी न रहते हुए भी राजदूत बनाए गए। अपने मिलनसार स्वभाव के जरिये ही उन्होंने तब के सोवियत संघ से
भारत के संबंध तो बेहतर बनाए ही, व्यक्तिगत रिश्ते भी बनाए। यह सिर्फ और सिर्फ गुजराल साहब के कारण था कि सोवियत संघ इंदिरा गांधी के कहने पर 1971 में हिंदुस्तान की मदद को राजी हुआ। दरअसल, बांग्लादेश युद्ध
से पहले इंदिरा गांधी ने यह आश्वासन मांगा था कि यदि हिंदुस्तान पर किसी तरह का कोई संकट आता है तो सोवियत संघ हमारी मदद करे। पहले सोवियत संघ ने इन्कार कर दिया
था, लेकिन गुजराल साहब के हस्तक्षेप के बाद वह इस पर राजी हो गया। 1971 की इस शांति संधि में उनकी अहम भूमिका थी। यह उनकी भद्रता और रिश्तों के नए अध्याय लिखने की कला की एक मिसाल मात्र है। असल में वह रिश्तों के
शिल्पकार थे। उनके रिश्तों की
गर्माहट आज तक महसूस की जाती है। यह स्वाभाविक ही है कि रूस ने उनके निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा है कि
वह उन्हें हमेशा याद रखेगा। गुजराल साहब 1980 तक रूस में रहे, लेकिन जब लौटे तो
कांग्रेस में शामिल न होकर जनता पार्टी
में चले गए। बाद में वह वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में विदेश मंत्री बने। खाड़ी युद्ध के समय उन्होंने
इराक में फंसे भारतीयों को
स्वदेश लाने का काम कुशलता से अंजाम दिया। राष्ट्रीय मोर्चा ने अप्रैल 1997 में उन्हें
प्रधानमंत्री बनाया। उनकी वामपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव के कारण ही उन्हें वाम दलों का बाहर से समर्थन
मिला। प्रधानमंत्री बनते ही विचारधारा के
इसी झुकाव में उन्होंने नौकरशाहों का वेतन बढ़ाया। उनका मानना था कि नौकरशाहों की ईमानदारी के लिए उनका वेतन बेहतर होना बेहद जरूरी है। प्रधानमंत्री रहते हुए वह दक्षिण
अफ्रीका गए और वहां से मिF जाकर निर्गुट सम्मेलन को नए आयाम देने की भी एक कोशिश की। उन्होंने भारत-पाकिस्तान संबंधों में जमी बर्फ को पिघलाने के
लिए तत्कालीन पाकिस्तानी
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सामने व्यापार शुरू करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने भारत-पाकिस्तान पीपुल्स कमेटी भी बनाई, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल थे। हालांकि उनकी सरकार मार्च 1998 में ही गिर गई, लेकिन 11 माह में ही वह अपनी अमिट छाप छोड़ गए। प्रधानमंत्री रहते उन्होंने नौकरशाहों के व्यवहार, राजनीति में ईमानदारी और काबिलियत पर जोर दिया। वह खुद एक
पारदर्शी व्यक्तित्व वाले शख्स थे।
सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने रिश्तों का अपना शिल्प जारी रखा। छोटे-छोटे समूह बनाने का शिल्प, जो भारतीय राजनीति को उनकी सबसे बड़ी देन है। अकाली और केंद्र के बीच तनाव की खाई को पाटने के लिए उन्होंने पंजाब ग्रुप बनाया। कश्मीर ग्रुप भी उन्हीं के
प्रयासों से बनाया जा सका।
मैं खुद इन दोनों का सदस्य रहा हूं। इसलिए कह सकता हूं कि यदि नई दिल्ली तब राजी हो गई होती तो अलगाववादियों के साथ
समझौता हो गया होता। उर्दू के साथ उनका एक जज्बाती जुड़ाव था। पाकिस्तान के मशहूर
शायर फैज अहमद फैज उनके अच्छे
दोस्त थे। गुजराल साहब एक सिद्धांतवादी व्यक्ति थे, जिन्हें अपने उसूलों के साथ समझौता करना मंजूर नहीं था। वह कई मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे। उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को लोकसभा
से होना चाहिए। यही कारण था कि राज्यसभा से
चुने जाने के बाद उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा। वह लोकपाल के समर्थक थे, लेकिन उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। उनका कहना था कि
प्रधानमंत्री के पास ऐसी बहुत सी
जानकारी होती है, जो उद्घाटित नहीं की जा सकती। ऐसे
में यदि अदालत में पेश होना पड़ जाए तो उसके
सामने धर्मसंकट की स्थिति बन सकती है। उन्होंने पिछले दिनों अन्ना हजारे का भी समर्थन किया था, लेकिन भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में अब वह साथ नहीं हैं। आखिरी बार जब उनसे मिला था तो मैंने पूछा था कि आप
प्रधानमंत्री रहे, कई मंत्रालय संभाले, राजदूत भी रहे, लेकिन जब आपने
अपनी आत्मकथा लिखी तो उसमें कोई बड़ा खुलासा नहीं किया। तब उनका यही जवाब था कि वह पत्रकार नहीं हैं, जो चीजों को सनसनीखेज बनाएं। आज उस अभिन्न मित्र के जाने से
जो अकेलापन मैं महसूस कर रहा हूं
वह सिर्फ मैं ही समझ सकता हूं। मुझे यकीन है कि हिंदुस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश भी उन्हें याद
करता रहेगा। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page-8 राजनीति
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