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विश्लेषण एन. के. सिंह
जिस तरह के भ्रष्टाचार के
आरोप सरकार पर लगे हैं या जिस तरह इस सामाजिक शासकीय-नै तिक बुराई
के खिलाफ 65 साल
से दबी भावना सामू हिक चे तना या
आक्रोश का स्वरूप लेती जा रही है, उसे एक मंत्रिमंडल
विस्तार के सन्देश से
या कुछ नए चेहरे लाकर निष्क्रिय नहीं
किया जा सकता अगर
65 साल
इस भावना को उभरने
में लगे हैं तो कम से कम कुछ साल और सतत प्रयास ही इसको निष्क्रिय कर
सकता है। लेकिन क्या वर्तमान सरकार यह प्रयास नहीं कर सकती कि विकास का भारी
डोज दे कर इसे कुंद किया जा सके
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में
राजनीतिक पार्टयिां और खासकर सत्ताधारी दल या दल समूह जो कुछ करते हैं उसमें
एक सन्देश होता है। जरूरी नहीं कि यह कार्य उस दल या दल-समूह ने जानबूझकर
सन्देश भेजने के लिए ही किया हो परन्तु जनता,
मीडिया या अन्य
पार्टयिां उस कृत्य में सन्देश ढूंढती ही हैं। मनमोहन सिंह के
नेतृत्व वाली यूपीए
-2 ने
तीसरी बार मंत्रिमंडल बदला है। कोई 45
पदों पर बदलाव या
पुनस्र्थापना की गयी है। कहा जा सकता है कि व्यापक पैमाने पर
सत्ता की केमिस्ट्री
में परिवर्तन हुआ। सन्देश तलाशा जा रहा है पर सन्देश है कि मिलता ही नहीं। आखिर वजह क्या है? क्या जरूरी नहीं था कि चुनाव के कोई
पौने दो
साल पहले एक जबरदस्त सन्देश जनता में दिया जाता?
क्या जरूरी नहीं था कि
भ्रष्टाचार से डूबती साख को विकास की थूनी (खम्भे) से उठाया
जाता? क्या जरूरी
नहीं कि इस अवसर का इस्तेमाल जनता को यह बताने में किया जाता कि सरकार
भ्रष्टाचार को लेकर बेहद चिंतित है और ‘जीरो
टालरेन्स’ (शून्य सहिष्णुता)
का भाव रखती है? लेकिन
हुआ ठीक इसके उल्टा। लगा जैसे सलमान
खुर्शीद का कद बढ़ाकर (उन्हें भारी जिम्मेदारी वाला विदेश
मंत्रालय मिला) गोया
एक चुनौती दी गयी हो उन लोगों को, जिन्होंने
इनके द्वारा चलाई जा रही स्वयंसेवी
संस्था में तथाकथित घपले और फर्जीवाड़ा को लेकर हंगामा किया था। सन्देश
यह नजर आया कि शायद मनमोहन सोनिया यह कह रहे हों कि ‘तुम लगाते रहो आरोप,
करते रहो सरकार को बदनाम,
हम तुम्हारे जैसे ‘चिल्लरों’
की परवाह नहीं करते। अदूरदर्शिता का एक और
नमूना देखिए- राजनीति में कोशिश की
जाती है कि वर्तमान जनाधार को साथ रखा जाए और नए जनाधार को
जोड़ा जाए। अगर 2009 के चुनाव में आंध्र
प्रदेश के मतदाताओं ने अच्छा समर्थन देकर
42 में 33 लोकसभा
सीटों पर कांग्रेस को जिताया तो धन्यवाद ज्ञापन उसी समय बनने वाले मंत्रि परिषद में किया जाना
था न कि साढ़े तीन साल बाद। लेकिन
कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इस प्रदेश से दस मंत्रियों को शपथ
दिलाकर अब धन्यवाद
ज्ञापन किया। नतीजा यह हुआ कि गांधी परिवार के निष्ठावान पार्टी के वरिष्ठ
नेता दिग्विजय सिंह को कहना पड़ा कि कुछ राज्यों को नजरअंदाज किया गया
है। दूसरे जहां आंध्र के काप्पू जाति के लोगों को तरजीह दी गयी वहीं न केवल
रेड्डी जाति को नाराज किया गया बल्कि अन्य जातियों को प्रतिनिधित्व देकर
बदले की भावना दिखाई गयी। यह बात सही है कि इस समय पार्टी के धुर-विरोधी जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस
से इस जाति के लोगों को पूरी तरह
खींच लिया है परन्तु राजनीति में बदला
नहीं होता। साथ ही जिस तरह अपेक्षाकृत
अच्छा काम कर रहे जयपाल रेड्डी को दूध की मक्खी की तरह पेट्रोलियम मंत्रालय से बाहर किया गया
है, उससे
पूरे देश में यह सन्देश गया
कि वर्तमान सरकार निजी कंपनियों के हाथों खेल रही है। पश्चिम
बंगाल के अधीर
रंजन चौधरी को मंत्री बना कर एक नया विवाद झेलना किसी भी तरह से राजनीतिक
सूझ-बूझ का परिचायक नहीं
कहा जा सकता है। गौरतलब है कि चौधरी
पर हत्या का मुकदमा चल रहा है। यह सही है कि जिस तरह के भ्रष्टाचार के
आरोप सरकार पर लगे हैं या जिस तरह इस सामाजिक शासकीय-नैतिक बुराई के खिलाफ
65 साल
से दबी भावना सामूहिक चेतना या आक्रोश का स्वरूप लेती जा रही है,
उसे एक मंत्रिमंडल विस्तार के सन्देश से या कुछ नए चेहरे
लाकर निष्क्रिय नहीं किया जा सकता है। अगर 65 साल इस भावना को उभरने में लगे हैं तो
कम से कम कुछ साल और सतत प्रयास ही इसको निष्क्रिय कर सकता है। लेकिन क्या
वर्तमान सरकार यह प्रयास नहीं कर सकती कि विकास का भारी डोज दे कर इसे कुंद
किया जा सके? सरकार
पिछले कई वर्षो से जीडीपी को लेकर अपने
परफॉर्मेंस को लेकर बांह पुजवाना चाहती है। आज भारत की जीडीपी
वर्तमान कीमतों
पर करीब 3.5 ट्रिलियन
डॉलर हो गई है। हम दुनिया के नौ देशों में हैं जिनका जीडीपी आकार इतना बड़ा है। क्या
उचित नहीं होता कि अगले पौने दो
वर्षो में गरीबी उन्मूलन के जबरदस्त कार्यक्रम शुरू किये जाते
या वर्तमान कार्यक्रमों
की सफलता सुनिश्चित की जाती? यह
ठीक है कि राहुल गांधी की छाप
इस फेरबदल में स्पष्ट दिखाई दी। उन्होंने अपने तीन युवा
तुर्कों- सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और जीतेन्द्र
सिंह को राज्य मंत्री (स्वतंत्र
प्रभार) और मनीष तिवारी,
पल्लम राजू और अजय माकन को महत्वपूर्ण प्रभार दे कर
यह सन्देश देने की कोशिश की है कि वह परिवर्तन चाहते हैं परन्तु उनके विभाग
यह बताते हैं कि सरकार की नजरों में आज भी महत्त्व गरीबी उन्मूलन न होकर
जीडीपी ही है, कैपिटल
मार्केट है और एफडीआई है। इस मामले में दो राय नहीं हो सकती कि वर्तमान में सरकार
द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रम जैसे
मनरेगा, सर्व-शिक्षा
अभियान, राष्ट्रीय
ग्रामीण स्वास्थ्य योजना एवं जल्द
हीं आने वाला खाद्य सुरक्षा कानून अपने आप में पूरी दुनिया में
अद्वितीय कार्यक्रम
है। इनमें से अधिकांश इसलिए पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि भ्रष्ट राज्य सरकारों के पास
इनके अमल की जिम्मेदारी है। हमने
उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना का हश्र देखा और
अन्य राज्यों में
बाकी दो का। आज जरूरत इस बात की थी कि युवा मंत्रियों को इन कार्यक्रमों से संबधित मंत्रालयों का
प्रभार देकर इन अद्वितीय कार्यक्रमों
को सफल बनाया जाये। आज चूंकि आधार कार्ड काफी हद तक बन चुके
हैं और सरकार वस्तु
की जगह सीधे गरीब लाभार्थी के खाते में पैसे भेजने पर सहमत हो चुकी है, ऐसे में इन युवा मंत्रियों को इन
कार्यक्रमों की मानिटिरंग का काम दिया
जाना चाहिए था। यह सत्य है कि आने वाले कुछ महीनों में यह
चारों कार्यक्रम परवान
चढ़ेंगे और यही रास्ता होगा भ्रष्टाचार के कारण गिरते जनाधार को रोकने
का। गरीब के हाथों जब पैसा मिलेगा,
जब उसे सरकारी अस्पताल से दवा न मिलने की स्थिति में कहीं से भी दवा
खरीदने पर केन्द्रीय योजना से भुगतान
मिलेगा और पूरी प्रक्रिया में बिचौलिया नहीं होगा तो उसके
दिलो-दिमाग में भ्रष्टाचार
किनारे होगा और सरकारी इमदाद काफी आगे। लेकिन इन तीनों युवा मंत्रियों को ऊर्जा, कंपनी मामले और युवा मामले दे कर सरकार
ने न उनकी ऊर्जा
का इस्तेमाल किया है और न वह यह सन्देश दे पायी कि गरीबी उन्मूलन उसके
लिए सभी अन्य चीजों से ऊपर है। साथ ही ना तो आंध्र प्रदेश में और न ही पश्चिमी
बंगाल में तत्काल चुनाव होने जा रहे हैं। न हीं इन राज्यों से कुछ मंत्री
बना देने से वहां की जनता वापस कांग्रेस के पास आने जा रही है। जब भ्रष्टाचार
के चलते सरकार के खिलाफ जबरदस्त जनाक्रोश हो तो जरूरत इस बार की होती
है कि अपने अच्छे कार्यक्रमों को पूरी निष्ठा से जन-हित के लिए समर्पित
करें ताकि उसका लाभ सरकार का सन्देश बन जाए।ऐसा नहीं है कि सरकार ने
इस दिशा में सोचा नहीं होगा। अगर सारी योजनाओं की राशि जोड़ी जाए तो हर साल
सरकार कोई दो लाख करोड़ रुपया जन कल्याण की उपरोक्त योजनाओं में खर्च करने
जा रही है। यानी एक गरीब परिवार को लगभग डेढ़ हजार रु पया हर माह मिलेगा
लेकिन क्या यह सही हाथों में जा पाएगा। अभी भी यूपीए-2 सरकार के पास समय है और वह अपनी युवा टीम को- जो
अपेक्षाकृत ईमानदार छवि वाली है यह
जिम्मेदारी दे ताकि विकास से भ्रष्टाचार को निरस्त किये जा
सके। (लेखक वरिेष्ठ
पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं)
Rashtirya sahara
National Edition 30-10-2012 राजनीति Pej 10
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