यूपीए सरकार की तीसरी सालगिरह के मौके पर आयोजित समारोह में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव की प्रमुखता से शिरकत को लेकर राजनीतिक हलकों में अटकलों का बाजार गर्म हो गया। यद्यपि दोनों ने इसे शिष्टाचार का नाम दिया है, किंतु इसके गूढ़ राजनीतिक निहितार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती। कांग्रेस पर आर्थिक स्थिति लगातार खराब होने और सरकार पर नीतिगत फैसलों में ढिलाई का आरोप लग रहा है तो नित नए घोटालों का उजागर होना और बढ़ती महंगाई कोढ़ में खाज की तरह है। आम चुनाव (2014) से पहले कांग्रेस आमजन के बीच अपनी इस छवि को तोड़ना चाहती है। इसलिए सपा सुप्रीमो से नजदीकियां उसकी राजनीतिक जरूरत हो गई है। इसीलिए डिनर पार्टी में गठबंधन के नये उभरते समीकरण की यह तस्वीर दिखी है ताकि कांग्रेस अपने सहयोगियों को उनकी हद बता सके। अभी तक वह उनके आगे घुटनों के बल खड़ी थी। ऐसे में राजनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गई है कि मुलायम सिंह किस हद तक कांग्रेस का साथ निभाएंगे और किस कीमत पर। राजनीति में कुछ असंभव नहीं है। जरूरत के अनुसार दूरियां नजदीकियों में और नजदीकियां दूरियों में बदलती रहती हैं। गठबंधन राजनीति में अपने ‘नंबर गेम’ को दुरुस्त देखकर सरकार ने कठोर कदम उठाने के संकेत दे दिये हैं। उसकी पहली कोशिश आर्थिक सुधारों की धीमी पड़ी गति को रफ्तार देने की है ताकि खराब आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सके। सहयोगी दलों के अड़ियल रुख के कारण ही रिटेल तथा पेंशन में एफडीआई और बैंकिंग संशोधन बिल अधर में लटके हैं। अब उसकी प्राथमिकता इन्हें यथाशीघ्र पास कराने की है। साथ उसकी कोशिश वर्ष 2012-13 में अनुमानित वृद्धि दर 7.75 फीसद को बनाए रखने की है। फिलहाल रुपया डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर पर है तो औद्योगिक विकास दर 3.5 प्रतिशत के करीब है। ऐसे में बाजार को आशंका है कि यदि देश की अनुमानित वृद्धि दर इससे कम हुई तो रोजगार, वेतन और बचत पर मार पड़ेगी। परिणामस्वरूप बीस साल में पहली बार मध्यवर्ग के जीवन स्तर में गिरावट आएगी। अभी सरकार पेट्रोल के दामों में साढ़े सात रुपये की वृद्धि कर कठोर फैसला लेने की दिशा में आगे बढ़ी है। हालांकि उसकी राजनीतिक दुारियां भी कम नहीं हैं। आसन्न राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस की साख दांव पर है। उसे अपने प्रत्याशी की जीत के लिए सहयोगियों के अलावा सपा का समर्थन चाहिए। अब सपा के साथ कांग्रेस की बढ़ी निकटता से यह चुनौती आसान होती दिख रही है क्योंकि राज्यसभा में पेश लोकपाल बिल को प्रवर समिति को भिजवाकर सपा ने इसका इजहार कर दिया है। आज क्षेत्रीय नेताओं में मुलायम की स्थिति सबसे मजबूत है। उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार होने से सपा उत्साह से लबरेज है। मुलायम की धर्मनिरपेक्ष छवि पर कोई दाग नहीं है। अभी यूपीए में जो दल शामिल हैं, उनमें राष्ट्रवादी कांग्रेस को छोड़कर अन्य सभी कभी न कभी भाजपा से हाथ मिला चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस को मुलायम का आंखमूंदकर समर्थन मिल पाना दूर की कौड़ी माना जा रहा है क्योंकि उनकी नजर 2014 के आम चुनावों पर है, जहां उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से होगा। इसलिए उनकी हर कोशिश कांग्रेस को कमजोर रखने की ही होगी। सपा ने लोस चुनाव में 50 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। वैसे यूपीए सरकार की बदहाली को लेकर जनता में गुस्सा है तो भाजपा की आपसी लड़ाई से वह निराश है। ऐसे में आने वाले दिनों में क्षेत्रीय दलों की केंद्र की राजनीति में मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। मुलायम उसका केंद्रबिंदु बनना चाहते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व संसद की साठवीं सालगिरह पर मुलायम ने कांग्रेस और भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा था कि 2014 में केंद्र में ऐसी सरकार बनेगी जिसे कांग्रेस और भाजपा चाहकर भी नहीं गिरा सकेंगी। इससे स्पष्ट है कि वे 2014 में केंद्रीय राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका की तैयारी में हैं। इसलिए वह कांग्रेस के लिए उसके किसी भी सहयोगी दल से नाराजगी मोल नहीं लेंगे। दूसरे, उनकी राजनीति कांग्रेस विरोध की रही है। अभी हर मुद्दे पर सरकार के विफलता के कारण कांग्रेस की जनता के बीच भद पिट रही है। ऐसे में मुलायम सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस से अपनी निकटता दिखाने से भी परहेज करेंगे। मुलायम सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं इसलिए उन्हें अपनी कमजोरी और मजबूती का बखूबी पता है। उन्होंने वर्ष 2008 में परमाणु करार के सवाल पर यूपीए-एक की सरकार बचाई थी। ऐसा उन्होंने अपने अपमान की परवाह किये बगैर किया था, क्योंकि 2004 में कांग्रेस के भोज में उनकी घोर उपेक्षा हुई थी। इतना ही नहीं, तब वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया था और उनसे मुलायम के मधुर संबंध थे। किंतु देशहित की खातिर उन्होंने उनकी भी परवाह नहीं की थी। उस समय लोकसभा में उनके 36 सदस्य थे। उस समय भी वह यूपीए सरकार में शामिल नहीं हुए जिसके चलते उनकी अलग पहचान बनी। अब यूपीए-दो सरकार में शामिल घटक दलों की सौदेवाजी, आसन्न मध्यावधि चुनाव से देश को बचाने तथा खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए भंवर में फंसी कांग्रेस को उबारने के लिए उनकी यह निकटता फिर से बढ़ी है। किंतु राजनीतिक खटास यथावत है। लड़खड़ाती कांग्रेस को इस संकट की घड़ी में सहारा देकर मुलायम अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं ताकि लोस चुनाव के दौरान वोटों की फसल काटी जा सके। इसलिए जन सरोकार के मुद्दों पर ही वह यूपीए सरकार के संकट मोचक बनेंगे। ऐसे में मुलायम कांग्रेस के कितने निकट और कितने दूर होंगे, यह अंदाजा लगाना स्वयं कांग्रेस के लिए भी काफी कठिन होगा। मसलन, पेट्रोल मूल्य वृद्धि के विरोध में विपक्षी दलों द्वारा आयोजित देशव्यापी बंद का समर्थन मुलायम भी कर रहे हैं। यूपीए-दो में कांग्रेस की जनछवि और राजनीति साख काफी कमजोर हुई है। भ्रष्टाचार और महंगाई से निपटने में उसकी अक्षमता के चलते जनता का आक्रोश बढ़ा है जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है। इस गिरते मनोबल को उठाने के लिए कांग्रेस को उन्हें जीत का टॉनिक देना होगा। लेकिन वह इतना आसान नहीं दिखता। क्योंकि 2014 के आम चुनाव से पहले अभी कई विधानसभा चुनाव होने हैं, इनमें गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली तथा छत्तीसगढ़ आदि शामिल है। वैसे गुजरात में हाल के मनसा उपचुनाव में जीत से वहां के कांग्रेसियों में उत्साह है, किंतु वे राज्य को मोदी के हाथों से छीनने की उम्मीद नहीं रखते। दूसरे, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने 22 विधायकों के विद्रोह का सामना कर रहे हैं। उनके लिए अच्छी खबर यह है कि यहां भाजपा भी अंतर्कलह की शिकार है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस गुटबंदी की शिकार है, हालांकि कर्नाटक में येदियुरप्पा के विरोध के चलते कांग्रेसियों में उम्मीद जरूर जगी है कि इससे पार्टी में नई जान आएगी। यह सच है कि दिल्ली में कांग्रेस के पास शीला दीक्षित जैसी करिश्माई क्षेत्रीय नेता जरूर हैं पर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह जैसे भाजपाई क्षत्रपों के मुकाबले के नेता उसके पास नहीं हैं। कांग्रेस के सामने फौरी चुनौती 12 जून को आंध्रप्रदेश में 18 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव हैं। यहां जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस को सांसत में डाले हैं तो अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर उसका ढुलमुल रवैया गले की फांस बना हुआ है। ऐसे में आम चुनाव से पूर्व होने वाले ये चुनाव कांग्रेस के लिए काफी अहम माने जा रहे हैं। इसीलिए कांग्रेस मुलायम के सहारे अपने सहयोगी दलों के दबाव को कम करने की जुगत में है। मुलायम सिंह को पता है कि कांग्रेस आज मजबूरी में उनके निकट आई है। इसलिए उन्हें इस सहयोग की राजनीतिक कीमत बसूलने में तनिक चूक नहीं करना चाहिए। उत्तर प्रदेश के लिए विशेष पैकेज के लिए उन्हें दबाव डालना चाहिए। साथ ही राज्य में चल रही केंद्रीय योजनाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा धन की मांग करनी चाहिए। इसके अलावा उन्हें कांग्रेस के साथ अपनी निकटता दिखाने में यह सतर्कता बरतनी होगी कि उसकी अक्षमता के लिए जनता उनकी पार्टी सपा को भी उसी के कतार में न खड़ी कर सके। क्योंकि उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनाने के बाद उनकी असल चुनौती 2014 में केंद्रीय राजनीति की मजबूत धुरी बनने की है। क्योंकि दोनों राष्ट्रीय दल (कांग्रेस- भाजपा) अपनी कमजोरियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय राजनीति में क्षत्रपों की अहम भूमिका की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
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