Tuesday, January 24, 2012

वायदों के भंवरजाल में राजनीति


कभी उत्तर प्रदेश में कंप्यूटर और अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनाव में अपने घोषणा पत्र में दसवीं पास छात्रों को टैबलेट और बारहवीं पास छात्रों को मुफ्त लैपटॉप देने का वादा किया है। वायदों की झड़ी यहीं आकर नहीं रूकी, समाजवादी पार्टी ने दसवीं पास मुस्लिम छात्राओं को 30 हजार रुपये, छात्रों को मुफ्त चिकित्सा, एक हजार रुपये, बेरोजगारी भत्ता और किसानों को मुफ्त पानी और बिजली देने का भी ऐलान कर दिया। मुफ्त लैपटाप देने की घोषणा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने की तो पंजाब में अकालियों ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुफ्त लैपटॉप देने का वादा कर दिया। मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त टैबलेट, मुफ्त बिजली और पानी जैसी चुनावी घोषणाएं अब तक तमिलनाडु जैसे राज्यों में सुनने को मिलती थी, लेकिन दक्षिण भारतीय राजनीति के लोक लुभावन प्रलोभन ने अब उत्तर भारत की राजनीति में भी दस्तक दे दी है। सवाल उठता है कि मुफ्त लैपटॉप और मुफ्त टैबलेट देकर क्या हम किसी राज्य की शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त कर सकते हैं? क्या इस तरह की घोषणाओं से उत्तर प्रदेश या पंजाब में छात्र सूचना प्रौद्योगिकी में महारत हासिल कर लेंगे? क्या बेरोजगारी भत्ता देकर किसी प्रदेश में बेरोजगारी की समस्या का हल निकाला जा सकता है, इत्यादि। हालात ये हैं कि देश में पैसा देकर भी किसानों को बिजली हासिल नहीं हो रही है तो ऐसे में किसानों को मुफ्त बिजली और पानी देने जैसे वायदों का क्या औचित्य है। पिछले साल तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने कुछ ऐसे ही वायदों की बौछार कर दी थी। चुनाव जीतने पर कोई लैपटाप देने की बात कर रहा था तो कोई विवाहित महिलाओं के गले में सोने के मंगलसूत्र देने का ऐलान कर रहा था। भले ही ऐसे राज्यों में गरीबों को दो जून की रोटी भी नहीं मिले, लेकिन इन राज्यों में गरीबों को मुफ्त अनाज देने का वादा पिछले कई चुनावों से किया जा रहा है। चुनावी राजनीति के इन खोखले वादों की असलियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण भारत के इस राज्य में किसानों को मुफ्त मिनरल वाटर दिए जाने का भी ऐलान किया गया था। दक्षिण भारत के इन राज्यों में नेताओं का राजनीति के साथ-साथ कारोबार का सिलसिला जमकर चलता है, लेकिन आम आदमी आज भी गरीबी और भुखमरी की मार से पीडि़त है। आम जनता से वायदा करने में कोई एक दल नहीं बल्कि सभी राजनीतिक दल शामिल हैं जबकि हकीकत में आम लोगों की मुश्किलों को दूर करने में जमीनी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किए जाते। आखिर कब तक राजनीतिक दल चाशनी में लिपटी योजनाओं को अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल करके आम जनता को धोखा देते रहेंगे? देश की आधी आबादी को अब भी भरपेट भोजन या पौष्टिक आहार नहीं मिलता, लेकिन राजनीतिक दलों को चुनावी घोषणाओं से किसी तरह का कोई परहेज नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अभी कुछ दिनों पहले कुपोषण पर नाराजगी जताते हुए इसे राष्ट्रीय शर्म करार दिया था। इससे संबंधित रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि देश में 42 फीसदी बच्चे कम वजन के पैदा होते हैं। विश्व बैंक के 1998 के आंकड़ों के मुताबिक भारत कुपोषण के मामले में बांग्लादेश के बाद दूसरे नंबर पर आता है और जन्म के समय कम वजन के बच्चे सबसे ज्यादा भारत में ही पैदा होते हैं। तमाम साक्षरता मिशन लागू करने के बाद अब भी हम लोग सौ फीसदी साक्षरता के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सके हैं। कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेता इन दिनों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड जैसे राज्यों में जाकर भ्रष्टाचार पर लंबी-चौड़ी बातें कर रहे हैं। प्रदेश में सरकार बन जाने पर बड़े-बड़े वादे और प्रदेश की पूरी तस्वीर बदलने की बात कर रहे हैं, लेकिन जनता जानना चाहती है कि आखिर केंद्र में इतने लंबे समय तक शासन करने के बाद देश के हालात में सकारात्मक सुधार क्यों नहीं हुआ? आजादी के इतने वर्षो के बाद भी अगर देश में लोग कुपोषण के शिकार हो रहे हैं तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी बनती है? लोगों को दो जून की रोटी और घर का चौका-चूल्हा जलाने के लिए काम की तलाश है और समाजवादी पार्टी और अकाली दल जैसे राजनीतिक दल राज्य के विकास के लिए कुछ ठोस योजनाओं की बात करने की बजाय मुफ्त लैपटाप और मुफ्त टैबलेट देने का वायदा कर रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि पंचायती राज से गांवों के हालात में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन इन पंचायत चुनावों में झूठे वायदों के साथ ही लोग मतदाताओं को नकली सामान देकर भी वोट हासिल करने की कोशिश करते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में दलित बस्ती के कुछ लोगों का कहना था कि किसी प्रत्याशी ने इन इलाकों में सोने की पॉलिश लगे जेवरों को असली बताकर मतदाताओं के बीच में बांट दिया और चुनाव के बाद इन लोगों को पता चला कि ये जेवर सोने के नही हैं। दरअसल, चुनाव चाहे पंचायत या नगरीय निकायों के हों अथवा फिर लोकसभा या विधानसभा के ज्यादातर राजनीतिक दल सतही चुनावी घोषणाओं के जरिये जनता का भरोसा हासिल करने की कोशिश करते हैं। कुछ ऐसा ही हाल इन दिनों राज्य विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल रहा है। यही वजह है कि तमाम राजनीतिक दल आम जनता को यह यकीन दिलाने में लगे हैं कि अगर प्रदेश में उनकी सरकार बन जाए तो राज्य में हालात पूरी तरह बदल जाएंगे। पिछड़े और अल्पसंख्यकों की समस्याओं से भले ही इन राजनीतिक दलों को कोई सरोकार नहीं हो, लेकिन चुनाव आते ही हर दल अपने-अपने हिसाब से आरक्षण का राग अलापना शुरू कर देता है। किसी को सच्चर कमेटी की रिपोर्ट याद आती है तो कोई रंगनाथ मिश्र आयोग की बात करता है। कुल मिलाकर सभी का मकसद एक ही रहता है, समाज के एक खास तबके का वोट उसके ही खाते में जाएं। राजनीतिक दलों को यह बात समझनी होगी कि काठ की हांडी को बार बार चुनावी चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता। चुनावी वायदों की हकीकत को जनता समझने लगी है। समाज के कमजोर और पिछड़े तबकों को आरक्षण के झुनझुने की नहीं अवसर की तलाश है। राज्य के युवाओं को बेरोजगारी भत्ते की नहीं, बल्कि स्थाई रोजगार की जरूरत है। युवाओं के भविष्य के लिए यह जरूरी है कि उन्हें कंप्यूटर और आधुनिक संचार से जुड़े माध्यमों की जानकारी हो, लेकिन मुफ्त लैपटाप और मुफ्त टैबलेट देने से पहले हमें सरकारी स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाई-लिखाई के स्तर को सुधारने की ज़रूरत है। किसानों के लिए बड़े-बड़े वायदों को करने के बजाय जरूरत इस बात की है कि बिचौलियों का खात्मा हो और किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम मिले। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दल हों या क्षेत्रीय पार्टियां, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दलों को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए। बेशक राजनीतिक दल समाज में कमजोर और पिछड़े तबकों की मदद के लिए नई घोषणाओं का ऐलान करें, लेकिन मदद का मकसद समाज के इस तबके को आजीवन बैसाखी थमाना नहीं होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजर-बसर कर रहे समाज के कमजोर और पिछड़े लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर मिलना चाहिए ताकि वह भी पूरे आत्मसम्मान के साथ समाज और देश के विकास में भागीदार बने सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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