कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर ने एक
साथ कई प्रश्नों को जन्म दे दिया है। इस शिविर की मुख्य बात यह रही कि राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया। वैसे इस घोषणा का कोई
खास मतलब नहीं है। व्यावहारिक रूप से तो वह पहले से ही नंबर दो के स्थान पर थे। अंतर केवल यह है कि अब आधिकारिक तौर पर कांग्रेस की कमान युवा नेता
के हाथों में सौप दी गई है। इस चिंतन शिविर में मुख्य आकर्षण की बात राहुल गांधी का भाषण रहा। इस भाषण में भावनात्मक पुट भी था और पार्टी के लिए
काम करने का संकल्प भी। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी के जिन सिपाहियों से उन्होंने बैडमिंटन खेलना सीखा था उन्होंने ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी और
इसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने भावुकता के साथ कहा कि जब उन्हें उपाध्यक्ष बना दिया गया
तब उनकी मां सोनिया गांधी उनके कमरे में आकर बहुत
रोईं और कहा कि सत्ता जहर का
प्याला है। सच कहा जाए तो
सोनिया गांधी का यह कथन शत-प्रतिशत सही है। राहुल गांधी के भाषण से ऐसा लगता है कि वह देश और कांग्रेस की राजनीति को ठीक से समझ नहीं पाए हैं। अनुभव यह बताता है
कि कांग्रेस का दुश्मन कांग्रेसी ही है। हर छोटे-बड़े नेता एक-दूसरे की टांग खिंचाई में माहिर हैं। आज की कांग्रेस जवाहर लाल नेहरू की
कांग्रेस नहीं है, जब कहा जाता था
कि एक अदने से व्यक्ति को भी कांग्रेस का
टिकट दे दिया जाए तो चुनाव में जीत जाएगा। न ही यह इंदिरा गांधी की कांग्रेस है। इंदिरा गांधी ने अपने
सफल नेतृत्व से
कांग्रेस में संजीवनी डाली और उसे पुन: अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। न आज की कांग्रेस राजीव गांधी के
जमाने की कांग्रेस है, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इसे भारी बहुमत मिला था। अब जमाना पूरी
तरह बदल गया है। पूरे देश में
क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हुई हैं और उन्हें उखाड़ पाना संभव नहीं है। बिहार जैसे राज्य में भ्रष्टाचार के दाग के
कारण कांग्रेस जब बुरी तरह
बदनाम हो गई थी तब उसका स्थान दूसरी भ्रष्ट पार्टी ने ले लिया था। कहा तो यह जाता है कि बिहार के उस समय
के कांग्रेसी नेता राजद के नेताओं से मिले हुए थे और दोनों ने मिलकर बिहार का सत्यानाश कर दिया था। इसी भ्रष्टाचार और जातीय आतंकवाद के कारण
नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) सत्ता में आई। उसने स्वच्छ प्रशासन दिया और लोगों में सुरक्षा की भावना फैलाई। आज स्थिति यह है कि बिहार जैसे राज्य
में कांग्रेस एक तरह से मृतपाय: हो गई है और लोग सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी से चाहे जो भी
वायदे करें, निकट भविष्य में बिहार में इस राजनीतिक दल के पुनरुत्थान की
संभावना भी नजर नहीं आती। पंडित नेहरू के समय से ही केंद्र में
कांग्रेस की सरकार बिहार और उत्तर प्रदेश के सांसदों के बल पर बनती थी। आज स्थिति एकदम बदल गई है। खासकर कुछ अरसा पहले बिहार और उत्तर प्रदेश में
विधानसभा के जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस बुरी तरह हार गई। कांग्रेस ने कभी यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि बिहार और उत्तर प्रदेश में उसका पतन
क्यों हुआ? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन सपा और बसपा ने
हथिया ली। अब वे बारी-बारी से इस राज्य में राज कर रही हैं और कांग्रेस हाशिये पर है। उसके पास न तो कार्यकर्ता हैं और न ही समीकरण, जो उसे दोबारा सत्ता में ला सके। आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस का जनाधार खिसक रहा है। उड़ीसा और पश्चिम
बंगाल में क्षेत्रीय
पार्टियां इतनी मजबूत हो गई हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना संभव
नहीं है। पीछे मुड़कर देखने से लगता है कि
राहुल गांधी को उपाध्यक्ष के रूप में नया पद देने में कांग्रेस ने बहुत देर कर दी। अब राजनीति का सबसे कड़ा इम्तिहान 2014 का लोकसभा चुनाव है। यदि राहुल दो वर्ष पहले पार्टी की कमान थाम लेते तो वह संगठन में सुधार कर सकते थे।
अब तो इतना कम समय बचा है कि वह पूरे देश के सभी प्रमुख गांव और शहरों का दौरा भी नहीं कर सकेंगे। डर
इस बात का है कि
स्वार्थी लोग उन्हें गुमराह करते रहेंगे और कहीं ऐसा न हो कि
गलत सलाह पर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व गलत
निर्णय ले ले जिससे पार्टी का बहुत बड़ा नुकसान हो जाए। एक बात तो स्पष्ट है कि कांग्रेस के नाम में अब वह जादू नहीं रह गया है जो पहले हुआ करता
था। आज भारत में युवाओं की आबादी 45 प्रतिशत हो गई
है। यह वर्ग बेचैन और अपने भविष्य के प्रति चिंतित है। उन्हें रोजगार और सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करन के अवसर चाहिए।
ये न मिलने पर उनमें आक्रोश
फैलना स्वाभाविक है। राहुल
गांधी के भाषण को देखते हुए मुझे 1985 में मुंबई
में हुए कांग्रेस के शताब्दी
समारोह की बात याद आती है जिसमें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे हुए राजीव गांधी ने कहा था कि कांग्रेस को
सत्ता के दलालों से बचाना है। उस सम्मेलन में सैकड़ों सत्ता के दलाल बैठे थे जो मन ही मन मुस्करा रहे थे और सोच रहे थे कि कहने और करने में बहुत अंतर
होता है। बाद की घटनाएं यह बताती हैं कि इन्हीं सत्ता के दलालों ने राजीव गांधी को अनेक विवादों में फंसा दिया, जिससे वह जीवनभर उभर नहीं पाए। अत: राहुल गांधी का यह मानना कि कांग्रेस संगठन में बैठे घाघ नेता उन्हें
आसानी से संगठन को साफ-सुथरा करने देंगे, दिवास्वप्न सा लगता है। चिंतन शिविर में शीर्ष नेतृत्व की तरफ से यह
कहा गया कि भविष्य में लोकसभा के उम्मीदवारों की घोषणा एक साल पहले और विधानसभा चुनावों के उम्मीदवारों की घोषणा तीन महीने पहले कर दी जाएगी। अनुभव
से यह पाया गया है कि राजनीति में कोई आदर्श का झंडा लेकर नहीं आता है। अधिकतर लोगों का एक सूत्रीय कार्यक्रम रहता है स्वार्थ की सिद्धि। जितनी
जल्दी उम्मीदवार की घोषणा की जाएगी उतना ही अधिक भितरघात का खतरा बढ़ जाएगा। राहुल गांधी बहुत ही भोले हैं। वह राजनीति की जटिलता को नहीं समझते।
आगे आने वाला समय बहुत कठिन है और उन्हें फूंक-फूंककर कदम रखने की आवश्यकता है। यह देश का दुर्भाग्य है
कि दूसरी बड़ी
पार्टी भाजपा अंतर्कलह में उलझी हुई है। उसका यह सोचना कि कांग्रेस का प्रभाव देश में कम हो रहा है इसलिए वह अपने आप
सत्ता में आ जाएगी, खुद को अंधकार में रखने के समान है। अत: प्रश्न यह उठता है कि
क्या आगामी लोकसभा
चुनाव के बाद केंद्र और राज्यों में क्षेत्रीय दलों का दबदबा
और बढ़ जाएगा और क्या ये दल राष्ट्रीय
समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होंगे? (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत
हैं)
Dainik Jagran , National Edition , date -22-01-2013 Page -7 Rajneeti